ॐ
गीता की कुछ शब्दावली - १०८
मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु ... (अध्याय ९ - श्लोक ३४)
மன்மனா பவ மத்பக்தோ மத்யாஜீ மாம் நமஸ்குரு ... (அத்யாயம் 9 - ஶ்லோகம் 34)
Manmanaa Bhava MadBhakto Madyaaji Maam Namaskuru ... (Chapter 9 - Shlokam 34)
अर्थ : मनको मुझपर लगा । मेरी भक्ति कर । मेरे लिए यज्ञ कर । मुझे नमस्कार कर ।
यह एक सूत्र रुपी शब्दावली है । श्री परमात्मा केन्द्रित जीवन जगने का सूत्र । मनस को मुझ ही पर लगा । मेरी भक्ति कर । मेरे लिए यज्ञ कर । मुझे नमस्कार कर ।
अपना मन श्री परम भाव से भर जाने दे । ऐसा मन लौकिक कार्य में लगा हो तब भी उसी के चिन्तन से भरा रहकर , उसी को केन्द्रित बनाकर रहता है । संसार के आकर्षणों में मोहित हो नहीं जाता । स्वयं भी आनन्द में डूबा रहकर , अन्यों भी आनन्द का स्रोत बन जाता है ।
श्री परमात्मा भक्ति कर । भक्ति केवल उसी की । Devotion only to God . भक्ति की एकमेव दिशा - श्री परमात्मा की ओर । सामान्यतः संसारी जीवन में विशवास , भक्ति श्रद्धा आदि अनेकानेक दिशाओं में बिखरे हुए हैं । रक्षा करने वाला राजा और राजांग अधिकारी , आय का स्रोत यजमान , शरीर की अस्वस्थ अवस्था को मिटाने वाला वैद्य , मनोरञ्जन करने वाले नट , खिलाड़ी , संगीत या अन्य क्षेत्र के कलाकार , आदि कई हैं जो अपनी भक्ति श्रद्धा के पात्र बनते हैं । संसार को प्राधान्यता देकर जीने वालों यह स्थिति है । श्री परमात्मा को आधार बनाकर जीने वालों में भक्ति एक मुखी होती है । इनके लिये , देश के राजा , अपने यजमान , वैद्य , नट , या कलाकार अदि को श्री परमात्मा के ही स्वरुप देखना सुलभ होता है । इनके संसारी जीवन बाधित होता नहीं । उसी समय वे संसारी साज सजावट में फॅसते भी नहीं ।
लौकिक सुख - सुविधाओं को पाने के लिये त्याग , यज्ञ जैसे कई प्रयत्न करने वाले लाख हैं । "मेरे लिये करो" यह निर्देश है श्री कृष्ण का । ऐसे कर पाने वाला बाहर से संसारी कार्य में मग्न लगे तो भी वास्तव में वह श्री परमात्मा में मग्न है ।
"मां नमस्कुरु" "मुझे नमस्कार कर" कहते हैं श्री कृष्ण । "हम किसी और के अधीन नहीं , केवल उसी के अधीन" - इस भाव के लिए पोषक है यह सुझाव । "हम तो उसके बन्दे हैं । हमें क्या किसी से भय ?" "बोले सो निहाल ! सत श्री अकाल" ! (काल से हमें क्या डर ? हम तो अकाल को नमस्कार करते हैं ।) नमस्कार केवल उसी के लिए । झुकना हो तो केवल उसी के सामने । ऐसी व्यक्ति को संसारी आसुरी शक्ति डरा धमकाकर झुका नहीं सकती । ऐसे ही साधू महात्मा को क्रूर अत्याचारी मुग़ल शासक झुका न सके ।
मनमाना ... भव मद्भक्तः ... मद्याजी ... मां नमस्कुरु ... उस के अलावा अन्य कुछ भी नहीं । बस ! वह मात्र है !!
श्री परमात्मा भक्ति कर । भक्ति केवल उसी की । Devotion only to God . भक्ति की एकमेव दिशा - श्री परमात्मा की ओर । सामान्यतः संसारी जीवन में विशवास , भक्ति श्रद्धा आदि अनेकानेक दिशाओं में बिखरे हुए हैं । रक्षा करने वाला राजा और राजांग अधिकारी , आय का स्रोत यजमान , शरीर की अस्वस्थ अवस्था को मिटाने वाला वैद्य , मनोरञ्जन करने वाले नट , खिलाड़ी , संगीत या अन्य क्षेत्र के कलाकार , आदि कई हैं जो अपनी भक्ति श्रद्धा के पात्र बनते हैं । संसार को प्राधान्यता देकर जीने वालों यह स्थिति है । श्री परमात्मा को आधार बनाकर जीने वालों में भक्ति एक मुखी होती है । इनके लिये , देश के राजा , अपने यजमान , वैद्य , नट , या कलाकार अदि को श्री परमात्मा के ही स्वरुप देखना सुलभ होता है । इनके संसारी जीवन बाधित होता नहीं । उसी समय वे संसारी साज सजावट में फॅसते भी नहीं ।
लौकिक सुख - सुविधाओं को पाने के लिये त्याग , यज्ञ जैसे कई प्रयत्न करने वाले लाख हैं । "मेरे लिये करो" यह निर्देश है श्री कृष्ण का । ऐसे कर पाने वाला बाहर से संसारी कार्य में मग्न लगे तो भी वास्तव में वह श्री परमात्मा में मग्न है ।
"मां नमस्कुरु" "मुझे नमस्कार कर" कहते हैं श्री कृष्ण । "हम किसी और के अधीन नहीं , केवल उसी के अधीन" - इस भाव के लिए पोषक है यह सुझाव । "हम तो उसके बन्दे हैं । हमें क्या किसी से भय ?" "बोले सो निहाल ! सत श्री अकाल" ! (काल से हमें क्या डर ? हम तो अकाल को नमस्कार करते हैं ।) नमस्कार केवल उसी के लिए । झुकना हो तो केवल उसी के सामने । ऐसी व्यक्ति को संसारी आसुरी शक्ति डरा धमकाकर झुका नहीं सकती । ऐसे ही साधू महात्मा को क्रूर अत्याचारी मुग़ल शासक झुका न सके ।
मनमाना ... भव मद्भक्तः ... मद्याजी ... मां नमस्कुरु ... उस के अलावा अन्य कुछ भी नहीं । बस ! वह मात्र है !!
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