ॐ
गीता की कुछ शब्दावली - ११३
भूयः कथय तृप्तिर्हि शृण्वतो नास्ति मेSमृतम् ... (अध्याय १० - श्लोकम १८)
பூயஹ கதய த்ருப்திர்ஹி ஶ்ருண்வதோ நாஸ்தி மே(அ)ம்ருதம் ... (அத்யாயம் 10 - ஶ்லோகம் 18)
Bhooyah Kathaya Truptirhi Shrunvato Naasti Me(a)mrutam ... (Chapter 10 - Shlokam 18)
अर्थ : मैं जब आपके अमृत तुल्य शब्द सुनता हूँ , मुझे तृप्ति होती नहीं ।
इस शब्दावली वक्ता और श्रोता की मनोभूमिका और आपसी सम्बन्ध को दर्शाती है । आपसी सम्बन्ध ही किसी श्रोता के लिए वक्ता के शब्दों को मधुर और अमृततुल्य बनाते हैं । श्रोता के मन में वक्ता के बारे में असीम स्नेह प्रेम होनी चाहिए । यहाँ अर्जुन के मन में श्री कृष्ण के विषय में अपार स्नेह प्रेम है । श्री कृष्ण भी अर्जुन पर उसी तुलना में स्नेह प्रेम रखता है । श्री कृष्ण गीता में अनेक बार इष्टोsसि , प्रियोsसि आदि शब्दों से अर्जुन के प्रति अपने स्नेह का प्रदर्शन किया है ।
बोली जानी वाली भाषा या बोले जाने वाले शब्द सम्बन्ध में महत्त्वपूर्ण नहीं है । माता पिता के लिए बच्चे की तोतली भाषा अति मधुर होती है । अमृततुल्य होती है । प्रेम बन्धन में बंधे स्त्री पुरुष के लिए एक दुसरे के शब्द परस्पर मधु वर्षाव होते हैं । कभी न तृप्त करने वाले होते हैं । गुरु के लिए अपने शिष्य की ज्ञान युक्त निर्मल शब्द अमृततुल्य होते हैं । उसी प्रकार शिष्य के लिए गुरु के ज्ञान प्रवचन कभी न थकाने वाला होता है । देश भक्त के लिए अपने देश की गौरव गाथा जितने बार सुनो उतनी ही अतृप्ति उत्पन्न करने वाली होती है । भक्त के लिए परमात्मा की लीला - विभूति कभी न तृप्ति देने वाली होती है । अमृततुल्य होती है ।
वक्ता की मनःस्थिति भी महत्त्वपूर्ण है । बोलने के पीछे हेतु क्या है , उसके अनुसार उसके वचन वक्ता के मन पर प्रभाव करते हैं । उसी प्रभाव के आधार पर हम वक्ता की मानसिकता जान सकते हैं । श्रोता के मन में वक्ता के बारे में विचार छिड़ जाय (जैसे "कितना अच्छा बोल रहा है" "कितना पढ़ा लिखा है यह") तो यह समझे की वक्ता अपने लिए , प्रशंसा के लिए , स्व अहङ्कार तृप्ति के लिए बोल रहा है । श्रोता के मन में बोले गये विचार के चिन्तन उठे तो यह समझे की वक्ता उस विचार के लिए , उस विचार को प्रभावित करने हेतु बोल रहा है । श्रोता यदि अपने आप को भूल बैठें , आनन्द मग्न हो जाए , स्तब्ध हो जाए तो यह समझे की वक्ता अपने आप को भूलकर , परमानन्द में मग्न स्थिति में बोल रहा है । नहीं । ऐसा कहना गलत होगा । वह बोल नहीं रहा । परवश स्थिति में वचन उसके मुँह से प्रकट हो रहे हैं । ये वचन अमृततुल्य होते हैं । जितना सुनो उतनी ही अतृप्ति उत्पन्न करने वाले होते हैं ये वचन ।
यहाँ वक्ता श्री कृष्ण और श्रोता अर्जुन के मनःस्थिति इसी प्रकार हैं । यही कारण है की अर्जुन कहता है , "हे ! कृष्ण ! बस आप बोलते रहिये । विस्तार से बोलिये । अमृततुल्य आपके वचन मुझे तृप्त कर नहीं रहे" ।
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