ॐ
गीता की कुछ शब्दावली - ११४
अहम् आत्मा सर्व भूताशय स्थितः ... (अध्याय १० - श्लोक २०)
அஹம் ஆத்மா ஸர்வ பூதாஶய ஸ்திதஹ ... (அத்யாயம் 10 - ஶ்லோகம் 20)
Aham Aatmaa Sarva Bhootaashaya Sthitah ... (Chapter 10 - Shlokam 20)
अर्थ : सभी जीवों में स्थिर बसने वाला आत्मा मैं ही हूँ ...
रुद्रों में शङ्कर हूँ (शब्दावली ११६) इस शब्दावली के विषय में लिखने के पश्चात इस शब्दावली पर लिख रहा हूँ । श्रीमद्भगवद्गीता यह अद्वैत सार होने का असन्दिग्ध प्रकटन इस शब्दावली में है ।
सभी जीवों में स्थिर रूप से बसा हुआ आत्मा मैं हूँ । ऐसा मान लिया की यह सत्य नहीं है , केवल एक कल्पना है , तो भी यह सुन्दर कल्पना है । मझे अद्भुत दृष्टी प्रदान करने वाली कल्पना है । यह संसार विविध दिख रहा है । विविध प्रकार के जीव जन्तु । स्थावर लोक में पेड़ , पौधा , लता , घास , मूल , आदि आदि लाखों प्रकार ; प्राणी जगत में जलचर , भूचर , नभचर , कीड़े , ऐसे लाखों प्रकार के प्राणी ; मनुष्यों में काला गोरा , ऊंचा , ठिंगना , चपटी नाक वाला , नोकीले नाक वाला ... कितने कितने प्रकार ... ये सभी भिन्न भिन्न मानने के कारण ही संसार में वैमनस्य , युद्ध , शोषण वृत्ति , गुलाम बनाने की चेष्टा , नाशकारी प्रयत्न , आदि क्रूर वृत्ति और उससे उत्पन्न कर्म प्रबल हैं ।
सब कुछ एक है , मुझे में जो है वही इन सभी में है , यही श्रद्धा मुझे अन्यों से जोड़ता है । इसी श्रद्धा के कारण मेरे मनस में अन्यों के प्रति स्नेह , करुणा , अपनापन की भावना जगता है ।
विविधता को देखा तो एकात्म भाव एकता का दर्शन जगता नहीं । इन विविधताओं के पीछे , सभी में "एक" का वास है ऐसा विचार ही , वह विचार काल्पनिक माना जाय तो भी , यही विचार इस विविध संसार में एकीकरण की दृष्टी , एकात्म भाव जगाता है ।
आज विज्ञान भी इसी विचार की दिशा में प्रगत हो रहा है । विज्ञान ने विविधता को देखा । अपनी दृष्टी सूक्ष्म होने पर अणु को देखा । अणु का विस्फोट कर विद्युदणु को देखा । उसके पार पहुँचकर ऊर्जा को पहचाना । अब ऊर्जा का भी कारण का शोध कर रहा है ।
अपने हिन्दू पूर्वजों ने भी विविधता को देखा । विविधता के पार 'एक' को ढूंढा । परमात्मा को पाया । उसी एक परमात्मा के अंश इन सारे विविधता में स्थिरता से बसा हुआ पाया । "अनेक नहीं । दो भी नहीं । केवल एक ही" इस सत्य की घोषणा किया । इसी आधार पर हिन्दू समाज "वसुधैव कुटुंभकम" (पूर्ण संसार एक परिवार है) ; "स्वदेशो भुवन त्रयम" (तीनों लोक मेरे लिए स्वदेश है) ; "यत्पिण्डे । तद्ब्रह्माण्डे" (पिण्ड में जो है , वही ब्रह्माण्ड में भी है) ; "सर्वम खल्विदं ब्रह्मम" (सब कुछ ब्रह्म है) ; "अहम् ब्रह्मास्मि" (मैं ब्रह्म हूँ) ; "तत्त्वमसि" (वही तू है) ; आदि वचन बोल सका । इस विचार के आधारपर भारत में जीवन व्यवस्था बना सका । इसी घोषणा को लेकर विश्व के अन्य देशों में जाकर , वहाँ की जनता को श्रेष्ट जीवन दिशा देनेवाले ऋषियों की परम्परा खड़ी कर सका । "मैं अलग , तुम अलग , मैं अन्यों से भिन्न" ऐसे स्वर उठाकर बिखर रहे संसार में ... "नहीं । नहीं । हम सब एक हैं । हम सभी के भीतर एक ही परमात्मा स्थित है । विविध दिखने वाले हम सभी के प्रत्येक हलचल , प्रत्येक कार्य , प्रत्येक क्षमता के कारण एक ही परमात्मा है । अनेक तो कतई नहीं । दो भी नहीं । बस एक । एक मात्र" इस अद्वैत सत्य का हम दृढ़ता पूर्वक , पुनः पुनः , अविरत विचार करते आये हैं । बोलते आये हैं । जीते आये हैं ।
यहाँ श्री कृष्ण भी अपने अद्वैत सार श्रीमद भगवद्गीता में यही घोषणा कर रहे हैं । "अहम् आत्मा सर्व भूताशय स्थितः" सर्व जीवों में स्थित आत्मा मैं ही हूँ" ।
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