ॐ
गीता की कुछ शब्दावली - ११५
इन्द्रियाणां मनश्चास्मि ... (अध्याय १० - श्लोक २२)
இந்த்ரியாணாம் மனஶ்சாஸ்மி ... (அத்யாயம் 10 - ஶ்லோகம் 22)
Indriyaanaam Manaschaasmi ... (Chapter 10 - Shlokam 22)
अर्थ : इन्द्रियों में मैं मनस हूँ ।
अपने इन्द्रिय हैं पांच । दर्शन , श्रवण , स्पर्श , सूंघ एवं चव आदि क्षमतायें । आँख , कान , त्वचा , नासी और जीभ इन इन्द्रियों के बाहरी साधन हैं ।
ये साधन विलक्षन हैं । इनके द्वारा हो रहा कार्य भी महत्तम है । अति सूक्ष्म है । हमें सुख पहुँचाने वाले कार्य हैं । हमारा आँख इस संसार के अनेकानेक रंगों को , रूप सौंदर्य को हम तक पहुँचाता है । आँखे न हो तो कैसा रहेगा ? एक क्षण के लिए यदि हम कल्पना करें तो आँखो का महत्त्व बढ़ जाएगा । परन्तु , थोड़ी गहराई से सोचे तो हमें समझता है की आँख तो केवल एक द्वार है जिसके द्वारा बाहर के दृश्य अंदर पहुँचते हैं । पुराने काल के केमेरा में शटर होते थे , बस वैसे ही हैं हमारे आँखे । दृश्य का पहचान , उसमे प्राप्त रंगों का विश्लेषण , आदि कार्य तो मेंदु और नसों से होते हैं । ये सभी अंग अपने अपने कार्य करने के पश्चात दृश्य का आनन्द लेता है मन । दृश्य में मग्न होता है मन । इसी प्रकार अन्य इन्द्रिय के साधन भी (कान , नासी आदि) द्वार हैं । इन सभी इन्द्रियों के पीछे महाराजा जैसे बैठा हुआ है मन , इन सभी इन्द्रियों के कार्य फल का आनन्द लेते हुए ।
मन है ? है और नहीं भी । मन नाम से कोई अंग नहीं । परन्तु अपनी उपस्थिति का आभास कराता है मन । मन कहाँ है ? सर्वत्र है । कहीं भी नहीं । क्या इन इन्द्रियों को कार्य में मन ही लगता है ? मन करता कुछ नहीं । परन्तु यदि मन नहीं , तो इन्द्रिय निष्क्रिय हो जाते है । यदि आँख के पीछे मन खड़ा न होता , आँखे खुले रहकर भी अंधे हो जाते हैं । मन के सभी लक्षण परमात्मा के ही लक्षण हैं ।
श्री कृष्ण कह रहे हैं , "इन्द्रियों में मैं मन हूँ" ।
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