ॐ
गीता की कुछ शब्दावली - ११८
यज्ञानां जप यज्ञो(s)स्मि ... (अध्याय १० - श्लोक २५)
யக்ஞானாம் ஜப யக்ஞோ(அ)ஸ்மி ... (அத்யாயம் 10 - ஶ்லோகம் 25)
Yagyaanaam Japa Yagyo(s)mi ... (Chapter 10 - Shlokam 25)
अर्थ : यज्ञों में मैं जप यज्ञ हूँ ...
ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम् .. तीसरे अध्याय में यह कहकर श्री कृष्ण ने घोषणा किया है की ब्रह्म का स्थिर वासस्थल यज्ञ है । यज्ञ ब्रह्म का प्रकट स्वरुप । यज्ञ ब्रह्म उपासना का विग्रह स्वरुप । यज्ञ ब्रह्म की ओर प्रगत कराने वाला मार्ग ।
यज्ञों में जप यज्ञ सुलभ है । मूल्यवान द्रव्य , विस्तृत व्यवस्था या क्लिष्ट पद्धतियों की आवश्यकता नहीं । अपने वाक् और मनस ही पर्याप्त हैं । इन दो करणों से जप यज्ञ साध्य है । लिखित जप में अपने हस्त और मनस की आवश्यकता है । पारायण जप में आँख और मनस की आवश्यकता है । श्रवण जप में कर्ण और मनस की आवश्यकता है । अतः मनस की आवश्यकता , उपस्थिति और योगदान के रूप में , अपरिहार्य है । बिना मनस के , यन्त्र रीत जप यज्ञ व्यर्थ है ।
जप मन की उपस्थिति में ही हो , यन्त्र रीत न हो इस दिशा में एक सुझाव है । होंठ और जीभ के हलचल और बाहर सुनाई देने वाले शब्द के साथ किया जाने वाला जप अधम है । बाहर शब्द सुनाई दे या नहीं भी दे , परन्तु होंठ और जिव्हा के हलचल के साथ किया जाने वाला जप मन्त्र का उच्चार मध्यम है । होंठ और जिह्वा भी न हिले , और मन ही मन किया जाने वाला जप मन्त्र का उच्चार उत्तम है ।
२७ लाख की संख्या जप यज्ञ में एक विशेष सँख्या है ।
जैसे जैसे हम जप करते हैं , वैसे वैसे वह जप मन्त्र अपने शरीर के अणु अणु से प्रसारित होता है । श्री आञ्जनेय के शरीर के रोम रोम से राम राम यह शब्द गूंजता था । जनाबाई नामक विट्ठल भक्ता के हाथों से बने गौरी (गोबर के सूखे गोले) से भी विट्ठल विट्ठल ध्वनी निकलती थी । गत शताब्दी में स्वामी विवेकानन्द जैसे अमेरिका जाकर वहाँ प्रचण्ड प्रभाव निर्माण करने वाले स्वामी रामतीर्थ जब सोते थे तो उनके प्रत्येक श्वास के साथ राम राम यह जप मन्त्र गूँजता था । राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ नामक संस्था के निर्माता डाक्टर केशव बळीरामपंत हेडगेवार अपने ज्वर अवस्था में भी भारत हिन्दू राष्ट्र है यही बड़बड़ाते थे ।
आरम्भ में जप हम करते हैं । काल प्रवाह में जप होता है । एक समय ऐसा आता है जब विना अपने प्रयास के अपने भीतर जप आपो आप होते रहता है , हमारी जागृत में और निद्रा में भी । गीता ने मुझे यह अनुभव दिया है ।
जप एवं जप में मग्न साधक दोनों का परिसर पर प्रखर प्रभाव है । ऋष्यश्रृंग ऋषि के पैर जहाँ जहाँ पड़ते थे , वहाँ वर्षा होती थी और भूमि शस्य श्यामलाम हो जाती थी । गीता पर मेरे कार्यक्रम जहाँ जहाँ होते थे , उन सभी स्थानों पर उन तीन पांच दिनों में कम से कम एक दिन वर्षा होते आयी है । कम वर्षा होने वाले अरब जैसे देशों में भी यह हुआ है । (इस में कोई चमत्कार मेरा नहीं । जप यज्ञ का चमत्कार है यह ।)
"यज्ञानां जप यज्ञो(अ)स्मि" .. यज्ञों में मैं जप यज्ञ हूँ ।
यज्ञों में जप यज्ञ सुलभ है । मूल्यवान द्रव्य , विस्तृत व्यवस्था या क्लिष्ट पद्धतियों की आवश्यकता नहीं । अपने वाक् और मनस ही पर्याप्त हैं । इन दो करणों से जप यज्ञ साध्य है । लिखित जप में अपने हस्त और मनस की आवश्यकता है । पारायण जप में आँख और मनस की आवश्यकता है । श्रवण जप में कर्ण और मनस की आवश्यकता है । अतः मनस की आवश्यकता , उपस्थिति और योगदान के रूप में , अपरिहार्य है । बिना मनस के , यन्त्र रीत जप यज्ञ व्यर्थ है ।
जप मन की उपस्थिति में ही हो , यन्त्र रीत न हो इस दिशा में एक सुझाव है । होंठ और जीभ के हलचल और बाहर सुनाई देने वाले शब्द के साथ किया जाने वाला जप अधम है । बाहर शब्द सुनाई दे या नहीं भी दे , परन्तु होंठ और जिव्हा के हलचल के साथ किया जाने वाला जप मन्त्र का उच्चार मध्यम है । होंठ और जिह्वा भी न हिले , और मन ही मन किया जाने वाला जप मन्त्र का उच्चार उत्तम है ।
२७ लाख की संख्या जप यज्ञ में एक विशेष सँख्या है ।
जैसे जैसे हम जप करते हैं , वैसे वैसे वह जप मन्त्र अपने शरीर के अणु अणु से प्रसारित होता है । श्री आञ्जनेय के शरीर के रोम रोम से राम राम यह शब्द गूंजता था । जनाबाई नामक विट्ठल भक्ता के हाथों से बने गौरी (गोबर के सूखे गोले) से भी विट्ठल विट्ठल ध्वनी निकलती थी । गत शताब्दी में स्वामी विवेकानन्द जैसे अमेरिका जाकर वहाँ प्रचण्ड प्रभाव निर्माण करने वाले स्वामी रामतीर्थ जब सोते थे तो उनके प्रत्येक श्वास के साथ राम राम यह जप मन्त्र गूँजता था । राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ नामक संस्था के निर्माता डाक्टर केशव बळीरामपंत हेडगेवार अपने ज्वर अवस्था में भी भारत हिन्दू राष्ट्र है यही बड़बड़ाते थे ।
आरम्भ में जप हम करते हैं । काल प्रवाह में जप होता है । एक समय ऐसा आता है जब विना अपने प्रयास के अपने भीतर जप आपो आप होते रहता है , हमारी जागृत में और निद्रा में भी । गीता ने मुझे यह अनुभव दिया है ।
जप एवं जप में मग्न साधक दोनों का परिसर पर प्रखर प्रभाव है । ऋष्यश्रृंग ऋषि के पैर जहाँ जहाँ पड़ते थे , वहाँ वर्षा होती थी और भूमि शस्य श्यामलाम हो जाती थी । गीता पर मेरे कार्यक्रम जहाँ जहाँ होते थे , उन सभी स्थानों पर उन तीन पांच दिनों में कम से कम एक दिन वर्षा होते आयी है । कम वर्षा होने वाले अरब जैसे देशों में भी यह हुआ है । (इस में कोई चमत्कार मेरा नहीं । जप यज्ञ का चमत्कार है यह ।)
"यज्ञानां जप यज्ञो(अ)स्मि" .. यज्ञों में मैं जप यज्ञ हूँ ।
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