ॐ
गीता की कुछ शब्दावली - १३६
प्रणम्य शिरसा .. कृताञ्जलिः .. (अध्याय ११ - श्लोक १४)
ப்ரணம்ய ஶிரஸா க்ருதாஞ்ஜலி .. (அத்யாயம் 11 - ஶ்லோகம் 14)
Pranamya Shirasaa ... Kruthaanjali ... (Chapter 11 - Shlokam 14)अर्थ : सर झुकाकर और हथेली जोड़कर ...
विनम्रता के दो बाह्य चिह्न हैं ये । नमस्कार के बाहरी कृति हैं ये । सर को झुकाना और हथेलियों को जोड़ना । ये संसार के लिए हिन्दुओं का मूल्यवान देन हैं ये ।
शिरस ... सर ... अन्य प्राणी जैसे न होकर सीधा , ऊंचा खड़ा मनुष्य शरीर की ऊंचाई पर है सर । मनुष्य के जानने की क्षमता और उस का उपकरण मेंदु (Brain) का निवास सर में है । मैं पन को दर्शाने वाला अहङ्कार और परिणाम उत्पन्न मद का निवास भी सर में है ।
अकड़ स्वयम को और अन्यों को दुःख पहुँचाता है । अकड़ अपनी अधोगति का कारण बनता है । अकड़ मित्रों को और अन्य बन्धुओं को हम से दूर करता है । अकड़ अन्यों के ऊपर अन्याय , अनीति और अराजकता करवाता है । शरीर में अकड़ को गीता स्तब्ध कहकर उसे तामसी कहती है । "मूढ़ ग्राहेणात्मनः" या "अकड़ से किसी मूढ़ विचार को धरकर स्वयम को अन्यों को पीड़ा देनेवाला कहकर बुद्धि में अकड़ को भी खण्डन किया है । अहँकार में अकड़ मद नामसे मन के छः वैरियों में एक माना जाता है ।
अकड़ मिटना हो तो विनम्रता खिलानी चाहिए । शरीर का अकड़ मिटाने , शरीर झुकना चाहिए । बुद्धि और अहङ्कार के अकड़ मिटाने वे समर्पित किये जानी चाहिए । सर को झुकाना इस दिशा में महत्त्व पूर्ण चेष्टा है । पैरों से लात मारना और सर झुकाना ये विपरीत भावनाओं को प्रकट करते हैं । लात मारना अकड़ दर्शाता है तो सर झुकाना विनम्रता और समर्पण ।
दोनों हाथों को जोड़ना यह कृति समत्त्व को दर्शाता है । भावना प्रधान मन और तर्क प्रधान बुद्धि में समत्त्व । विचार और कृति में समत्त्व । (आज के विज्ञान की भाषा में बोलूं तो दाहिना और बाया मेंदु में समत्त्व ) हाथों को जोड़ने की यह कृति "सिद्ध" रहने का सन्देश देती है । एक हाथ से नमस्कार करना अपने शास्त्रों के अनुसार मना है । शेक करने के लिए हाथ बढ़ाना जब यह सन्देश देता की , "मैं तुम्हारा सम हूँ" वहीं हाँथ जोड़ना समर्पण और सहयोग का सन्देश देता है ।
हाथों को जोड़ना पर्याप्त नहीं । सर को भी झुकाना आवश्यक है । शिरस को झुकाना पर्याप्त नहीं । मनस में विनम्रता , निरहङ्कारता और समर्पण भाव खिलाना आवश्यक है । पहले दोनों कृति बाहरी हैं । अन्यों के देखने में हैं । इसलिए स्वयं के विषय पर अन्यों मनस में मत बनाने योग्य हैं । तीसरी कृति (मन में विनम्रता खिलना) केवल हम स्वयम जानते हैं । यही अपने स्वयम के विषय पर अपना सही मत है । अन्यों के मन में अपने विषय पर जो मत है , उससे हमें संसार में पुरस्कार और प्रशंसा मिल सकती है । अपना निज सत्य स्वरुप है उसीसे हमारा उद्धार है । हमें भगवान के निकट पहुँचाता है ।
शिरस ... सर ... अन्य प्राणी जैसे न होकर सीधा , ऊंचा खड़ा मनुष्य शरीर की ऊंचाई पर है सर । मनुष्य के जानने की क्षमता और उस का उपकरण मेंदु (Brain) का निवास सर में है । मैं पन को दर्शाने वाला अहङ्कार और परिणाम उत्पन्न मद का निवास भी सर में है ।
अकड़ स्वयम को और अन्यों को दुःख पहुँचाता है । अकड़ अपनी अधोगति का कारण बनता है । अकड़ मित्रों को और अन्य बन्धुओं को हम से दूर करता है । अकड़ अन्यों के ऊपर अन्याय , अनीति और अराजकता करवाता है । शरीर में अकड़ को गीता स्तब्ध कहकर उसे तामसी कहती है । "मूढ़ ग्राहेणात्मनः" या "अकड़ से किसी मूढ़ विचार को धरकर स्वयम को अन्यों को पीड़ा देनेवाला कहकर बुद्धि में अकड़ को भी खण्डन किया है । अहँकार में अकड़ मद नामसे मन के छः वैरियों में एक माना जाता है ।
अकड़ मिटना हो तो विनम्रता खिलानी चाहिए । शरीर का अकड़ मिटाने , शरीर झुकना चाहिए । बुद्धि और अहङ्कार के अकड़ मिटाने वे समर्पित किये जानी चाहिए । सर को झुकाना इस दिशा में महत्त्व पूर्ण चेष्टा है । पैरों से लात मारना और सर झुकाना ये विपरीत भावनाओं को प्रकट करते हैं । लात मारना अकड़ दर्शाता है तो सर झुकाना विनम्रता और समर्पण ।
दोनों हाथों को जोड़ना यह कृति समत्त्व को दर्शाता है । भावना प्रधान मन और तर्क प्रधान बुद्धि में समत्त्व । विचार और कृति में समत्त्व । (आज के विज्ञान की भाषा में बोलूं तो दाहिना और बाया मेंदु में समत्त्व ) हाथों को जोड़ने की यह कृति "सिद्ध" रहने का सन्देश देती है । एक हाथ से नमस्कार करना अपने शास्त्रों के अनुसार मना है । शेक करने के लिए हाथ बढ़ाना जब यह सन्देश देता की , "मैं तुम्हारा सम हूँ" वहीं हाँथ जोड़ना समर्पण और सहयोग का सन्देश देता है ।
हाथों को जोड़ना पर्याप्त नहीं । सर को भी झुकाना आवश्यक है । शिरस को झुकाना पर्याप्त नहीं । मनस में विनम्रता , निरहङ्कारता और समर्पण भाव खिलाना आवश्यक है । पहले दोनों कृति बाहरी हैं । अन्यों के देखने में हैं । इसलिए स्वयं के विषय पर अन्यों मनस में मत बनाने योग्य हैं । तीसरी कृति (मन में विनम्रता खिलना) केवल हम स्वयम जानते हैं । यही अपने स्वयम के विषय पर अपना सही मत है । अन्यों के मन में अपने विषय पर जो मत है , उससे हमें संसार में पुरस्कार और प्रशंसा मिल सकती है । अपना निज सत्य स्वरुप है उसीसे हमारा उद्धार है । हमें भगवान के निकट पहुँचाता है ।
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