ॐ
गीता की कुछ शब्दावली - १४३
नरलोकवीरा विशन्ति तवामि वक्त्राण्यभिविज्वलन्ति ... (अध्याय ११ - श्लोक २८)
நரலோகவீரா விஶந்தி தவாமி வக்த்ராணி அபிவிஜ்ஜ்வலந்தி ... (அத்யாயம் 11 - ஶ்லோகம் 28)
NaraLokaVeeraa Vishanti Tavaami Vaktraani Abhibijjwalanthi .. (Chapter 11 - Shlokam 28)अर्थ : नरलोक के वीर आपके प्रज्ज्वलन्त मुख में प्रवेश कर रहे हैं ।
यह दृश्य है अर्जुन को प्राप्त विराट दर्शन का । भीष्म , द्रोण , कर्ण और युद्ध क्षेत्र पर उपस्थित सभी वीर तेजी से परमात्मन के खुले मुख में प्रवेश कर रहे हैं और उनके जबड़ों में फंसकर चूर्णित हो रहे हैं ।
अतः क्या हम यह समझें की संसारिक जीवन याने मृत्यु की ओर प्रयाण ही ? हाँ । निःसंदेह । और यह प्रवास उसी क्षण प्रारम्भ हो जाता है , किस क्षण में जन्म होता है । यह बात हमें प्रिय नहीं । हमारे लिये कड़वा और अहितकारी लगता है । आप को अच्छा लगे या ना लगे , इससे सत्य को क्या ? अच्छा नहीं लगता तो आँखे बंद कर लें । परन्तु , हमने आँखें बन्द कर लिया तो भी वह कन्वेयर बेल्ट (Conveyor Belt) जिस पर हम बैठें हैं और जो हमारा मृत्यु की ओर सरक रहा है , वह रुकने वाला नहीं ।
अर्जुन इस दृश्य का वर्णन करते हुए दो उपमा प्रस्तुत कर रहे हैं । "जैसे नदी तेजी से समुद्र की ओर प्रवाहित होकर , समुद्र में विलीन होकर नष्ट होती है , वैसे ..." "जैसे पतंग तेजी से दीप ज्योति की ओर आकर्षित होकर , उसमे गिरकर नष्ट होते हैं , वैसे ..." एक मछर उड़कर आता है । हाँथ पर बैठता है , बस केवल एक क्षण बैठता है । अगले ही क्षण उस मनुष्य के दुसरे हाँथ से मारा जाता है । मरने के लिये ही आया , बैठा और मारा गया । एक क्षण के मध्य काल में उस मछर ने एक बूँद रक्त पी लिया । इतना ही उसका जीवन । यही उसके जीवन की साधना । मछर के लिए कुछ क्षण । मनुष्य के लिए कुछ वर्ष । बस इतना मात्र अन्तर है मछर और मनुष्य में ।
क्या परमात्मा भावना रहित यन्त्र हैं ? सम्भव है उनमे भावना हो । श्रेष्ट गुणों वाला जीव उसके लिए प्रिय हो सकता है । लोक क्षेमार्थ प्रयत्न करने वाला जीव उसके लिए अतीव प्रिय हो सकता है । परन्तु , "इस श्रेष्ट , महान जीव को मृत्यु नहीं" यह घोषणा करने अधिकार उस परमात्मा को भी नहीं । जो भी जन्मा है उसे मरना या मिटना होगा । जो भी मरा है , उसे पुनः जन्मना होगा । यह प्रकृति का नियम है , जिसका पालन कटाक्षता से , यन्त्र गति से होता है । इस में भावना के लिये कोई स्थान नहीं ।
अर्जुन का कहना है की , "सभी योद्धा तेजी से भगवान के मुख में प्रविष्ट हो रहे हैं और चूर्णित हो रहे हैं" । आश्चर्य की बात यह है की उनमे अर्जुन स्वयम को देख नहीं रहा । मनुष्य को स्वयम की मृत्यु दिखती नहीं । स्वयम को मरते हुए मनुष्य अनुभव कर नहीं सकता । एक कारण है की वह स्वयम को स्थूल शरीर मानता है । शारीरिक या इन्द्रिय सुखों में वह मग्न है । सुखों से वञ्चित किया जाना उसे मान्य नहीं और वह निश्चित जानता है की मृत्यु सुख एषणा और सुखानुभव दोनों का ही अंत है । अतः वह अपना मृत्यु देखना नहीं चाहता । उसके विषय में सोचने से भी कातरता है । दूसरा कारण यह है की मनुष्य का निज स्वरुप शरीर नहीं आत्मा है । अति सूक्ष्म आत्मा परमात्मा का अंश है । परमात्मा नित्य हैं । शाश्वत हैं । आत्मा जो उनका अंश है , वह भी नित्य है । अविनाशी है । अमर है । यह सत्य है और यह मनुष्य के अंतरात्मा की गहरायी में बसा है , मनुष्य चाहे इसे जाने या ना जाने । यह सत्य के ही कारण मनुष्य अपना स्वयम का मृत्यु को देख नहीं पाता । मृत्यु की अनुभूति उसे हो नहीं सकती ।
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