ॐ
गीता की कुछ शब्दावली - १४४
लेलिह्यसे ... (अध्याय ११ - श्लोक २८)
லேலிஹ்யஸே ... (அத்யாயம் 11 - ஶ்லோகம் 30)
Lelihyase ... (Chapter 11 - Shlokam 30)अर्थ : आप जिह्वा से चाट रहे हैं ।
भोजन पाते समय जिह्वा का उपयोग कर चाटना एक अनिवार्य क्रिया है । उंगलियों को चाटना , हथेली - अगली और पिछली - चाटना , होठों को चाटना । भोजन खाने का आनन्द को व्यक्त करता है । रुचि या स्वाद में रम जाने का अनुभव दर्शाता है । केंटकी मुर्गी के विज्ञापन कहता है - अपने उंगली चाटो या "Lick your fingers" वह कंपनी कहना चाहती है की उनकी मुर्गियाँ अत्यन्त रुचिकर हैं । समीप काल में एक चॉकलेट कंपनी ने भी इसी प्रकार का विज्ञापन बनाया । हम हिन्दू , विशेषकर ब्राह्मण जूठा न लेने का व्रत पालते हैं । जूठा किये विना खाने के आदी हैं । फिर भी , अपनी थाली से भोजन चाटकर खाने का आनन्द ही अलग है ।
प्राणी भी अपने भोजन के बाद होंठ को चाटते हैं । वहाँ स्वछता ही हेतु है । "वाह वाह ! भोजन स्वादिष्ट है" "आज का भोजन का स्वाद ही स्वाद है" ऐसे सोचने की वृत्ति प्राणियों में नहीं है । अतः हम निश्चित यही माने की प्राणियाँ मुख और होठों की स्वछता के लिए ही चाटते हैं । मनुष्य भिन्न है । मनुष्य स्वाद का आनन्द अनुभव कर सकता है । भोजन करने का आनन्द में रम सकता है । भोजन शरीर के लिए । शरीर के लिए आवश्यक ऊर्जा और अन्य सत्त्व के लिए । दांतो तले चबाना भोजन के पचन कार्य में सहायतार्थ है । चाटना सूक्ष्म रुचि का आनन्द लेने , तृप्त होने और अन्नदाता को बधाई देने के लिए । इस लिए अवश्य चाटकर ही भोजन पाए ।
हम चाटकर खायें अवश्य । परन्तु आजकल नागरी सभ्यता के नाम पर .. सही कहो तो एक झूठी आचार संहिता या मिथ्याचार "मुझे मैं बनने से" "हमको हम बनने से रोक रहा है । "अन्य जन मुझे देख रहे हैं" "मेरे विषय में क्या सोचेंगे" "यह आचार मेरे लिए योग्य नहीं" ऐसे कई भ्रामक सोच के आधार पर जो करना उचित है , करते नहीं , जो अपनी परम्परा के लिए सुसंगत है वह करते नहीं , जो अनुचित वह करते हैं । (जैसे चाटकर खाते नहीं । थाली में झूठा छोड़ते हैं । अपनी हथेली का पूर्ण उपयोग करते नहीं । हाथ से भोजन मिलाते नहीं । सजीव हाथ का उपयोग ना कर निर्जीव स्पून का उपयोग करते हैं ।)
यहाँ , अर्जुन श्री परमात्मा को चाटते हुए देख रहे हैं । अपने खुले मुख में प्रवेश होने वाले योद्धाओं को दांतो से चूर्णित कर अपनी जिह्वा से सर्व दिशा में चाट रहे हैं । मानो वे नाश करते हुए आनन्दित हो रहे हैं । अपनी सृष्टि का नाश करते हुए आनन्द मग्न हो रहे हैं । सृजन में भी आनन्द । नाश में भी आनन्द ।
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