ॐ
गीता की कुछ शब्दावली - १४१
प्रव्यथितान्तरात्मा धृतिं न विन्दामि शमं च ... (अध्याय ११ - श्लोक २४)
ப்ரவ்யதிதாந்தராத்மா த்ருதிம் ந விந்தாமி ஶமம் ச ... (அத்யாயம் 11 - ஶ்லோகம் 24)
Pravyathitaantaraatmaa Dhrutim Na Vindaami Shamam Cha ... (Chapter 11 - Shlokam 24)अर्थ : मेरी अन्तरात्मा जो भयभीत है , उसे धैर्य या शान्ति मिल नहीं रही ।
यहाँ अर्जुन एक आधार पूर्व सत्य बोल रहा है । हम भयभीत होते हैं , किसी दृश्य या शब्द या अन्य किसी अनुभव से , इसलिए नहीं की वह अनुभव भयङ्कर था , परन्तु इसलिये की हमारा अंतःकरण भयाङ्कित है । डरा हुआ मन वाला ऐसा व्यक्ति तो दृश्य या शब्द नहीं रहा तो भी केवल भ्रम के आधार पर भयभीत हो जाता है ।
कोई दृश्य अपने आप में भयङ्कर होता नहीं । कोई ध्वनि या अन्य कोई भी अनुभव अपने आप में भयावह होता नहीं । वैसा हो तो जो भी वह अनुभव प्राप्त करता है वह भयभीत होना चाहिए । यथार्थ वैसा नहीं । एक अनुभव का प्रभाव व्यक्तिगत है । कोई हंसता है । कोई उदासीन रहता है । कोई डरता है । डरने वाले भी एक समान डरते नहीं । व्यक्ति की मानसिकता , आस्थायें , आदि पर निर्भर है उसपर होने वाला प्रभाव । अर्जुन का यही कहना है । मेरा डरा हुआ मन धैर्य और शान्ति को प्राप्त हो नहीं रहा ।
अब एक प्रश्न उठता है । जनों को अनैतिक कार्य से रोकने में भय का क्या योगदान है ?? बच्चों को बुरे आदतों से रोकने में भय कितना उपयोगी है ?? गीता आगे सोलहवे अध्याय में इस भय को "ह्री" कहकर इसे दैवी संपत्ति कहा है । यद्यपि भय का सीमित उपयोग ही है । एक सीमा के बाहर भय सुख जाता है और निष्क्रिय हो जाता है । सिगरेट डिब्बा पर कपाल का चित्र और चेतावनी वाक्य किसी को सिगरेट फूंकने से रोक नहीं सकता । फ़िल्म में दारू पीने के दृश्य के साथ नीचे "दारू पीना आपके स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है " लिख दिया तो कोई दारू पीना छोड़ नहीं देता । भय के साथ समझाने का प्रयत्न और गलतियों के लिए निश्चित दण्ड देने की कड़क व्यवस्था भी आवश्यक है ।
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