ॐ
गीता की कुछ शब्दावली - १४२
प्रसीद देवेश जगन्निवास ... (अध्याय ११ - श्लोक २५)
ப்ரஸீத தேவேஶ ஜகந்நிவாஸ ... (அத்யாயம் 11 - ஶ்லோகம் 25)
Praseeda Devesha Jagannivaasa .. (Chapter 11 - Shlokam 25)अर्थ : हे जगन्निवास ! आप प्रसन्न हो जाइये ।
अर्जुन का मांग है यह । श्री परमात्मा से मांग रहे हैं । उनका विराट दर्शन पाने की इच्छा उसी ने व्यक्त किया । मृत्यु के घोर ताण्डव को , अपनी ही सृष्टि का नाश करते श्री परमात्मा का भयङ्कर स्वरुप को देखता है । भयभीत होता है । यह निवेदन करता है । "प्रसन्न हो जाइये , हे जगन्निवास !"
इसमें दो बिंदु हमारा ध्यान आकर्षित कर रहे हैं । एक भक्ति की महिमा । दूसरा मनुष्य मन की एक वृत्ति ।
भक्ति एक मनुष्य को भगवान के प्रति कैसे अधिकार देती है देखिये । भगवान के पास निवेदन रखता है । मांग रखता है । भगवान को आज्ञा देता है । भगवान भी इस भक्त के निवेदन स्वीकारता है । इसकी आज्ञा का पालन करता है । ख्रिस्ती , इस्लाम जैसे मतों में यह बात कल्पनातीत है । यही कारण है , हिन्दू धर्म में प्रत्येक मनुष्य के लिये व्यक्तिगत उपासना सम्भव है । उसकी अनुमति भी है । एक हिन्दू अपनी स्वेच्छानुसार किसी भी रुप विग्रह लेकर , उसमे अपनी इष्ट देवता का आह्वान कर , अपने मतानुसार (याने अपने मन की श्रद्धा भक्ति के अनुसार) उससे रिश्ता बना सकता है । वह चाहे नाचें , गायें , लाड प्यार करें , डांटे , खाना खिलाएं , अलंकृत करें , स्नान करायें , वैद्य उपचार करें , सुलायें या चाहे जो करें । यही सही अन्य गलत ऐसा हिन्दू धर्म कतई नहीं कहता ।
अन्य सम्प्रदायों में भगवान का एक एजेंट होता है । एक दूत होता है । उसके निर्देशानुसार , एकत्रित जन , उसके निर्देशों का पालन कर सकते हैं । उससे हटकर कुछ कर नहीं सकते । वैसा करना सम्प्रदाय विरोधी अपराध और दंडनीय घोषित किया गया है (उस एजेंट द्वारा !) सीधा भगवान से रिश्ता - नाता बांधने की अनुमति नहीं । वैयक्तिक उपासना या प्रार्थना के लिए स्थान नहीं । अपने हिन्दू धर्म में भी तो मंदिर हैं । वहाँ अर्चक है । ऐसा प्रश्न उठ सकता है । हाँ । है । मन्दिर व्यवस्था केवल सामाजिक है । समाज में एकता बने रहने में सहायतार्थ व्यवस्था । भगवान के साथ सम्बन्ध तो वैयक्तिक है ।
सूरदास ने बालकृष्ण रूप में दर्शन माँगा , तो उसे वैसा ही दर्शन मिला । तुलसीदास ने कृष्ण मंदिर में प्रवेश करना मना किया । भगवान से यह मांगा की कोदंड धर राम के रूप में दर्शन दो तो आऊँ । उनको वैसा ही दर्शन मिला । श्री कनकदास मन्दिर के भीतर प्रवेश कर नहीं सके तो उदास थे । श्री कृष्ण पीछे घूमकर , मंदिर के दीवार तुड़वाकर उनको दर्शन देते हैं उडुपी में । श्री रंगम में झाड़ू लगाने वाला और श्री रंगनाथ दर्शन के लिए पिपासु श्री तिरुप्पाण आळवार को अपने कंधे पर उठा ले आओ तो मंदिर के द्वार खुलेंगे ऐसी आज्ञा मंदिर के प्रमुख पुजारी को दिया भगवान श्री रंगनाथ ने । अपने भक्त श्री अभिराम भट्ट के लिए अमावास्या की रात्री को पूर्णिमा की रात्री में बदल दिया देवी जगन्माता ने ।
अपने ध्यान आकर्षित करने वाला दूसरा विषय है , मनुष्य मन की विशेष वृत्ति । इसकी चर्चा हो चुकी है । नाश को देखने की अनिच्छा , नाश नैसर्गिक है यह स्वीकार करने की अनिच्छा , रौद्र दृश्य से भयभीत , निसर्ग या परम तत्त्व का उग्र को टालने की वृत्ति ... यह मनुष्य मन का सामान्य स्वभाव प्रदर्शित होता है , अर्जुन के इस निवेदन में । स्तम्भ से प्रकट होने वाले श्री नृसिह्म ने हिरण्यकशिपु का वध किया । उस समय देवता भी , क्यूँ माता लक्ष्मी भी उनके उग्र रूप सह नहीं सके । छोटा बालक प्रह्लाद को उनके पास भेजते हैं , उनको प्रशांत करने । अर्जुन भी तो सामान्य नर है । श्री भगवान से विनंती करता है की प्रसीद ... प्रसन्न हो जाइये हे देवेश !!
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