ॐ
गीता की कुछ शब्दावली - १४९
नाहं वेदैर्न तपसा न दानेन न चेज्यया शक्य दृष्टवान असि माम् । (अध्याय ११ - श्लोक ५३)
நாஹம் வேதைர்ந தபஸா ந தானேன ந சேஜ்யயா ஶக்ய த்ருஷ்டவான் அஸி மாம் .. (அத்யாயம் 11 - ஶ்லோகம் 53)
Naaham Vedairna Tapasaa Na Daanena Na Chejyayaa Shakya Drushtavaan Asi Maam .. (Chapter 11 - Shlokam 53)
अर्थ : मुझे वेदों के द्वारा , तपस या दान से , यज्ञ हवन से देखना असम्भव है ।
"पढ़ना लिखना व्यर्थ है" ... कहता है आलस्य और प्रमाद में समय गंवाने वाला एक अनपढ़ व्यक्ति । विद्यालयीन शिक्षा , महाविद्यालयीन शिक्षा , स्नातकोत्तर पदवी , डॉक्टरेट की एक नहीं , दो पदवी प्राप्त एक व्यक्ति कहता है की , "पुस्तकों का महत्त्व एक सीमा तक ही है । जीवन को समझने में पुस्तक पर्याप्त नहीं" । इसे सुनकर पहला व्यक्ति हंसता है और कहता है की "मैं ने भी यही कहा" । क्या दोनों का कहना एक ही है ? इन्होंने पुस्तकों के बीच अपना सारा समय बिताया । इनके उच्च शिक्षण के कारण ये जब प्रशंसित किये जाते , सम्मानित किये जाते तो विनम्रतापूर्ण कहे गये शब्द हैं ये । अनुभव एवं चिंतन के आधार पर प्रकट हुए शब्द हैं ये । वह तो आलस्य और मौज मस्ती में डूबा रहा । पुस्तकों को छुआ तक नहीं । जब उसकी अनाड़ीपन , निरक्षरता की ओर उसका ध्यान आकर्षित किया जाता , तो ग्लानि , आत्म सम्मान को पहुंचे चोट के कारण इन शब्दों को बोलता है । जिस विषय में अनुभव नहीं है , उस विषय पर बोले गये अज्ञान मय शब्द हैं । दोनों कथन एक नहीं ।
"पत्थर पर दूध बरसाना और पुष्पों से पत्थर को सजाना ये सब व्यर्थ हैं । मन्दिर में जाना ही व्यर्थ है । जो नहीं उसके लिये पूजा नाम से घंटों समय बिताना अज्ञान है" ऐसा कहता है एक नक्सली कार्यकर्ता । काली पूजा में जीवन को लगा दिया जिन्होंने ऐसे श्री रामकृष्ण परमहंस निर्विकल्प समाधि के अनुभव के लिए तरसते हैं । इससे यह सूचित करते हैं की विग्रह आराधना पूर्ण नहीं । परब्रह्म को जानने में इसके आगे कुछ आवश्यक है ।क्या इन दोनों के शब्द सम हैं ? वह नक्सली उसके नेता के शब्दों का केवल वमन कर रहा है । उसके शब्दों में न स्वानुभव है , न ज्ञान । हिंसा , द्वेष और हीन भावना के आधार पर बोले गये शब्द हैं उसके । श्री रामकृष्ण परमहंस विग्रह आराधना के चरम सीमा तक पहुंचे , इसके परे विषय होने की अनुभूति होती है तो उसे प्राप्त करने की इच्छा करते हैं । दोनों के शब्द सम नहीं ।
यहाँ श्री कृष्ण वेदों के विरुद्ध , यज्ञ दान तपस के विरुद्ध नहीं बोल रहे । उपनिषदों में , जो वेद के अंग हैं , यही बात बोली गयी है । परमात्मा को जानने में ये पर्याप्त नहीं । तो उसे जानने के लिये क्या है अवश्यक? अगली शब्दावली में ...
"पत्थर पर दूध बरसाना और पुष्पों से पत्थर को सजाना ये सब व्यर्थ हैं । मन्दिर में जाना ही व्यर्थ है । जो नहीं उसके लिये पूजा नाम से घंटों समय बिताना अज्ञान है" ऐसा कहता है एक नक्सली कार्यकर्ता । काली पूजा में जीवन को लगा दिया जिन्होंने ऐसे श्री रामकृष्ण परमहंस निर्विकल्प समाधि के अनुभव के लिए तरसते हैं । इससे यह सूचित करते हैं की विग्रह आराधना पूर्ण नहीं । परब्रह्म को जानने में इसके आगे कुछ आवश्यक है ।क्या इन दोनों के शब्द सम हैं ? वह नक्सली उसके नेता के शब्दों का केवल वमन कर रहा है । उसके शब्दों में न स्वानुभव है , न ज्ञान । हिंसा , द्वेष और हीन भावना के आधार पर बोले गये शब्द हैं उसके । श्री रामकृष्ण परमहंस विग्रह आराधना के चरम सीमा तक पहुंचे , इसके परे विषय होने की अनुभूति होती है तो उसे प्राप्त करने की इच्छा करते हैं । दोनों के शब्द सम नहीं ।
यहाँ श्री कृष्ण वेदों के विरुद्ध , यज्ञ दान तपस के विरुद्ध नहीं बोल रहे । उपनिषदों में , जो वेद के अंग हैं , यही बात बोली गयी है । परमात्मा को जानने में ये पर्याप्त नहीं । तो उसे जानने के लिये क्या है अवश्यक? अगली शब्दावली में ...
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