ॐ
गीता की कुछ शब्दावली - १५०
भक्त्या तु अनन्यया शक्य । (अध्याय ११ - श्लोक ५४)
பக்த்யா து அநந்யயா ஶக்ய .. (அத்யாயம் 11 - ஶ்லோகம் 54)
Bhaktyaa Tu Ananyayaa Shakya .. (Chapter 11 - Shlokam 54)
अर्थ : अनन्य भक्ति से ही मुझे देखना सम्भव है ।
अन्य - अनन्य .. अनन्य याने वह जो अन्य नहीं । जहाँ और कुछ नहीं , बस यही । केवल वह । अन्य कोई और नहीं ।
हम सभी भक्ति के लिये अपने अपने लक्षण निश्चित कर रखे हैं । माथे पर साम्प्रदायिक चिह्न लगाना , गले में विविध प्रकार की माला पहनना , नित्य नियमित पूजा करना , नियमित देवालय दर्शन के लिये जाना , तीर्थ यात्रा करना , साम्प्रदायिक कार्यक्रमों में भाग लेना , आध्यात्मिक या देव सम्बंधित साहित्य पढ़ना , आध्यात्मिक प्रवचन सुनना , इस प्रकार के लक्षण निर्णय कर लेते हैं और उस आधार पर स्वयं को भक्त मान लेते हैं । दोसा में जैसे साधा दोसा , मसाला दोसा और स्पेशल मसाला दोसा होते हैं वैसे ही भक्ति में भी साधी भक्ति , ऊंची भक्ति और बहुत ऊंची भक्ति ऐसे वर्गीकरण कर लेते हैं । माथे पर लगाया गया चिह्न का आकार , पूजा या देवालय में बिताया जाने वाला समय , गले की माला का आकार और संख्या के आधार पर भक्ति साधी , ऊंची और श्रेष्ट भक्ति बन जाती है ।
भक्ति का एक ही लक्षण बताते हैं श्री कृष्ण । गीता में कई बार कहते हैं । अनन्य भक्ति । जिसमे और कुछ न हो ऐसी भक्ति । अन्य कोई न हो जिसमे ऐसी भक्ति । एक ओर हम यह कहते हैं की भगवान के चरणों में शरण हो गए । परन्तु राजनैतिक व्यक्ति के द्वार पर पड़े रहकर कार्य करवाने उसे फुसलायेंगे दूसरी ओर । देव सन्नधि में खड़े रहकर "सब कुछ तेरी इच्छा " ऐसा निवेदन करते हैं एक ओर । देवालय से बाहर निकलते ही ज्योतिष को मिलकर स्वेच्छा के अनुरूप कैसा हो इस के लिए सलाह लेंगे दूसरी ओर । उस दिशा में यदि आवश्यकता हो तो ग्रह प्रीती करने की तैयारी करेंगे । ॐ सत्य स्वरूपाय नमः मन्त्र जापकर अर्चना करेंगे एक ओर । व्यवसाय में और लौकिक व्यवहार में तो असत्य अनिवार्य है कहते हुए अनैतिक व्यवहार चालु रखेंगे दूसरी ओर । पालयमाम रक्षमाम कहकर भजन जाएंगे एक ओर । दूसरी ओर इन्श्यूरेंस , मेडिक्लेम , होल बॉडी चेक अप आदि पीछे दौड़ लगाएंगे । "हे ईश्वर ! तुम मेरी गति हो " गाते हुए कोई पद या अधिकार प्राप्त करने में जुट जाएंगे । श्री कृष्ण भक्ति का एक ही लक्षण बताते हैं ... अनन्य भाव .. ऐसी भक्ति जिसमे अन्य कुछ नहीं ।
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