ॐ
गीता की कुछ शब्दावली - १४८
संवृत्तः सचेताः प्रकृतिम गतः ... (अध्याय ११ - श्लोक ५१)
ஸம்வ்ருத்தஹ ஸசேதாஹ ப்ரக்ருதிம் கதஹ ... (அத்யாயம் 11 - ஶ்லோகம் 51)
Samvruttah Sachetaah Prakrutim Gatah ... (Chapter 11 - Shlokam 51)अर्थ : मैं अपने सहज स्वाभाविक स्थिति को प्राप्त हुआ ।
अर्जुन कह रहे हैं , "आपके सौम्य मनुष्य स्वरुप देखकर मैं सचेत मन को प्राप्त हुआ । अपने सहज स्वाभाविक मनः स्थिति को लौटा । अर्जुन कहाँ गया हुआ था ? कहाँ से लौटा ?
वह कहीं भी गया हुआ नहीं था । युद्ध क्षेत्र में ही था । एक असामान्य परिस्थति में उसकी मनः स्थिति उसके लिये अपरिचित थी । उसके लिये नयी थी । उस मनः स्थिति से वह पुनः अपनी सामान्य मनः स्थिति को लौटा । इसे ही वह कह रहा है , "मैं अपने सहज स्थिति को लौटा ।"
हम अपने दैनिक जीवन में जिसे देखते हैं , वही हमारी सहज मनः स्थिति । सामान्य परिस्थितयों यही हमारी मनः स्थिति रहती है । यह हमारे लिये सुपरिचित है । हम समझ लेते हैं की यही हमारा स्वभाव है । परन्तु वास्तव में यह स्वभाव होता नहीं । एक असाधारण परिस्थिति में ही अपना निज स्वभाव प्रकट होता है ।
"सामान्यतः मुझे गुस्सा आता नहीं । अपने परिचितों के बीच मैं शान्त स्वरूपी ही जाना जाता हूँ । परन्तु कठिन परिस्थिति में मैं चिढ जाता हूँ" । कठोर परिस्थिति में अपना निज स्वभाव जो अन्तरंग में छिपा हुआ रहता है , वह भड़क कर निकलता है । "साधारणतः वह व्यक्ति सब की सहायता करता है । बहुत परोपकारी है । उसने मना किया यह आश्चर्य की बात है । परन्तु पिछले कुछ दिनों से उसके जीवन में तूफ़ान मचा है" । "मेरी पत्नी अखिला सामान्यतः डरी हुई रहती है । भयभीत रहना उसका स्वभाव ऐसा ही मैं सोचा । परन्तु उसका शरीर रोग ग्रस्त हुआ । रोग से उत्पन्न दुःख , वेदना को उसने शान्ति से सह लिया । ना चिड़चिड़ापन , ना शोक , ना रुदन , ना डर । बड़ा आश्चर्य । इसके विपरीत मेरे परिचित एक सन्न्यासी , अध्यात्म विषयों पर बोलने वाला , मन और उसकी वृत्तियों का वर्णन कर शिष्यों का मार्ग दर्शन करने वाला ... जब उसका वैद्य ने उससे कहा की आपके किडनी अक्षम हो गये और आपको डायालिसिस में रहना होगा , तो फूट फूट कर रोने लगे" ।
अपनी सहज सामान्य मनः स्थिति और अपना निज स्वभाव ये दोनों भिन्न हैं । अपना स्वभाव असामान्य परिस्थिति में ही प्रकट होता है । अपने आस पास के व्यक्तियों को आश्चर्य में डुबाता है । "यही है वो व्यक्ति ??" स्वयं को भी , "मुझसे ऐसा व्यवहार कैसे हो गया ??" इस प्रश्न डुबाता है ।
अर्जुन इस सन्दर्भ में और एक विषय भी कह रहा है । सचेतस इस शब्द का प्रयोग कर रहा है । सचेतस याने चेता हुआ मन , जागृत मन । अर्जुन कह रहा है की मैं जागृत मन को प्राप्त हुआ । मन में जब भय , चिन्ता , शोक , हड़बड़ाहट , गुस्सा आदि भावना उभरते हैं तो मन की जागृति लुप्त होती है । हमारी मनः स्थिति और उससे परिणित हमारा व्यवहार मन के जागृत अवस्था के समय और जागृति खोई हुई स्थिति में समान नहीं होते ।मन की जागृति सदैव जीवित रहने के लिये गहरा ज्ञान , अटूट श्रद्धा , दृढ़ मन , सत्य और सरलता , वैराग्य और स्वाध्याय की आवश्यकता है । भूंमि पर पड़ा एक फुट चौड़ा फलक पर चलना आसान है । इस कार्य के लिए कोई जागृत मनः स्थिति की आवश्यकता नहीं । परन्तु वही फलक यदि दस तल वाले दो भवनों को जोड़कर रखा जाए और उसपर चलना हो तो अपार जागृति की आवश्यकता है । क्षण भर के लिये जागृति लुप्त हुई तो भी अनर्थ हो सकता है ।
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