ॐ
गीता की कुछ शब्दावली - १५४
सर्वत्र समबुद्धयः ... (अध्याय १२ - श्लोक ४)
ஸர்வத்ர ஸம புத்தயஹ ... (அத்யாயம் 12 - ஶ்லோகம் 4)
Sarvatra Sama Buddhayah ... (Chapter 12 - Shlokam 4)
अर्थ : सभी विषयों में , सभी जीवों में सम बुद्धि ...
सर्वत्र सम बुद्धयः ... सर्व स्थानों में , सभी परिस्थितियों में , सभी प्रकार के अनुभवों में , सभी व्यक्तियों के साथ सम बुद्धि ... निर्गुण निराकार उपासना में , परब्रह्म परमात्मा की उपासना के लिए प्रथम अनिवार्य निर्बन्ध है यह । Precondition है ।
यही विषय दूसरा अध्याय में चर्चित था , स्थित प्रज्ञ के नाम से । यही विषय की चर्चा छटे अध्याय में भी की गयी । और अब यहाँ , बारहवे अध्याय में इसकी पुनरावृत्ति हुई है । सन्दर्भ विविध परन्तु विषय एक । गीता एक संवाद है । संवाद में पुनरावृत्ति अनपेक्षित नहीं है ।
सर्वत्र सम बुद्धि ... स्व गृह में , स्व ग्राम में , नगर में , राजधानी में , बहिर्देश में , विमान में , बैल गाडी पर , प्रतिष्ठित सभा के मंच पर , जन समूह के भीड़ में , कैमरा के सामने , और ऐसे विविध प्रकार के स्थानों में सम बुद्धि ... स्वागत में , तिरस्कार में , विरोध में , तपती धुप में , कड़ी सर्दी में , मच्छरों के बीच , वातानुकूलित कमरे में , अपरिचित अवस्था में , वैभव में , अभाव में और अन्य प्रकार की परिस्थितियों में सम बुद्धि ... जय पराजय में , मान अपमान में , लाभ नष्ट में , सुख दुःख में , रोग पीड़ा में , निरामय अवस्था में , स्वीकार और अस्वीकार में , और अनेक ऐसे अनुभवों में सम बुद्धि ... हितकारी , अहितकारी , मित्र , विरोधी , स्नेही , द्वेषी , सहकारी , अवरोध उत्पन्न करने वाला , आज्ञा पालक , उदासीन , साधू , मान सम्मान की अर्हता प्राप्त , पापी , स्त्री , सुन्दर स्त्री , कुरूप , सामान्य मनुष्य , कीर्तिमान मनुष्य आदि अनेक प्रकार की व्यक्तियों के साथ व्यवहार में सम बुद्धि ...
सम बुद्धि याने समान व्यवहार , समान प्रतिक्रया , निश्चल और प्रशांत अन्तर्मनस ... उपरोक्त सूची ऐसे सभी परिस्थितियाँ , मनुष्य और अनुभव हैं जहाँ मन अपना सन्तुलन खो सकता है ।
सर्वत्र सम बुद्धि जड समान निर्जीव अवस्था है क्या ? बाहरी लक्षण देखें तो दोनों स्थितियां समान ही लगते हैं । परन्तु जड़ अवस्था प्राकृतिक है । उसमें समत्त्व बाधित होने की सम्भावना है नहीं । प्रतिक्रया भी असम्भव है । सम बुद्धि में प्रतिक्रया की क्षमता रहते हुए भी निश्चल रहना ही तात्पर्य है । उपकरण जीवित हैं । उनमे अनुभव लेने की क्षमता है । उन अनुभवों के आधार पर मनस का समतोल डगमगाने की सम्भावना भी है । परन्तु मन अपना समत्त्व बनाये रखता है ।
मन और अहंकार ये दोनों सम बुद्धि की प्राप्ति में अवरोधक हैं । इन्द्रियों के अपने अपने विषयों के साथ संयोग के अनुभवों को मन ही ग्रहण करता है । उन अनुभवों को इष्ट अनिष्ट के आधार पर अनुकूल और प्रतिकूल संज्ञा देकर विभागित करता है । इष्ट की इच्छा करता है और अनिष्ट को द्वेष करता है । अतः मनो नाश या मन का निर्मूल नाश से ही सम बुद्धि की प्राप्ति सम्भव है ।
अहङ्कार याने 'मैं' अकड़ खड़ा है । स्व या व्यक्ति का निज अहङ्कार को समष्टि 'मैं' से भिन्न और विशेष समझता है । अहङ्कार का विसर्जन या अहङ्कार का समर्पण से ही सम बुद्धि का निर्माण सम्भव है ।
ऐसे कुछ जीव हैं जिन्हें सम बुद्धि सुलभ । जन्म के साथ ही प्राप्त है । जड़ भरत , शुक मुनि , श्री रमण महर्षि आदि जीव युगों में एक बार जन्म लेते हैं । प्रयत्न से , अभ्यास से सम बुद्धि प्राप्ति सामान्यतः असम्भव है । इसी लिए श्री कृष्ण निर्गुण निराकार की उपासना को कठिन और क्लेश मयि बता रहे हैं ।
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