ॐ
गीता की कुछ शब्दावली - १५६
क्लेशोSधिकतरस्तेषां अव्यक्तासक्त चेतसाम् ... (अध्याय १२ - श्लोक ५)
Klesho(a)dhikatarasteshaam Avyaktaasakta Chetasaam ... (Chapter 12 - Shlokam 5)
க்லேஶோSதிகதரஸ்தேஷாம் அவ்யக்தாஸக்த சேதஸாம் ... (அத்யாயம் 12 - ஶ்லோகம் 5)
अर्थ : अव्यक्त निराकार परब्रह्म परमात्मन पर आसक्त मन वाला उपासक के लिये , उसे प्राप्त करना अत्यन्त कठिन है ।
बहुत कठिन ... कह रहे हैं श्री कृष्ण । इस के पूर्व भी यह विषय चर्चित है । भू लोक में हम शरीर और इन्द्रियों के साथ रहते हैं । ये प्रकट विषयों को , व्यक्त विषयों को जानने के उपकरण हैं । आँखे रूप को देख और जान सकते हैं । कर्ण शब्दों को । नासी गन्धों को और जिह्वा रुचियों को जान सकते हैं । त्वचा स्पर्शित वस्तुओं को जान पहचान सकती है । यह सत्य है की मन कल्पनाओं को और भावनाओं को जान सकता है और बुद्धि चिन्तन को जान सकती है । क्या ये अव्यक्त नहीं हैं ? ये सूक्ष्म रूप से व्यक्त हैं और इन्द्रियों की सहायता से ही मन बुद्धि इन्हें जान सकते । इन सभी जानने में संसार से सम्बन्ध अनिवार्य है ।
परब्रह्म परमात्मा किसी भी रूप में व्यक्त नहीं हैं । परन्तु सृष्टि में सभी में स्थित हैं । सभी क्रिया के कारण हैं परन्तु सभी से अलिप्त हैं । सृष्टि में कण कण में व्याप्त हैं । परन्तु इन सभी कण का प्रलय होने के पश्चात भी उनका अस्तित्त्व है । उन्हें कल्पना करना व्यर्थ है । उनके विषय में चिंतन करना भी व्यर्थ है । उन्हें जानना है । उनकी अनुभूति करनी है । संसारी बन्धन से मुक्त होकर अपने अन्दर झाँककर उन्हें देखना है और जानना है । इस सामर्थ्य वाला उपकरण हमें उपलब्ध नहीं है । संसार में रहते हुए संसारी बन्धन से मुक्त होना बड़ा कठिन आह्वान है । इसी लिए श्री कृष्ण कह रहे हैं की निर्गुण निराकार परमात्मा की उपासना कर उन्हें जानना और उनसे ऐक्य प्राप्त करना कठिन है , बहुत कष्टदायी है ।
श्री कृष्ण का कहने का तात्पर्य यह नहीं की सगुण साकार की उपासना अति सरल है । न ही विग्रह द्वारा उपासना को श्रेष्ट बता रहे हैं । उस मार्ग में भी कई कठिनाइयाँ हैं । इन्द्रियों के अनुभव में ही थम जाने की शक्यता है । विग्रह की उपासना करने की भावना लोप होकर विग्रह के माध्यम से परमात्मा की उपासना करने की भावना बनानी चाहिए । यह बड़ा कठिन है । यह मार्ग भी कठिन है , परन्तु उस मार्ग की तुलना में यह थोड़ा सुलभ है । काम कष्ट वाला मार्ग मान सकते हैं ।
परब्रह्म परमात्मा किसी भी रूप में व्यक्त नहीं हैं । परन्तु सृष्टि में सभी में स्थित हैं । सभी क्रिया के कारण हैं परन्तु सभी से अलिप्त हैं । सृष्टि में कण कण में व्याप्त हैं । परन्तु इन सभी कण का प्रलय होने के पश्चात भी उनका अस्तित्त्व है । उन्हें कल्पना करना व्यर्थ है । उनके विषय में चिंतन करना भी व्यर्थ है । उन्हें जानना है । उनकी अनुभूति करनी है । संसारी बन्धन से मुक्त होकर अपने अन्दर झाँककर उन्हें देखना है और जानना है । इस सामर्थ्य वाला उपकरण हमें उपलब्ध नहीं है । संसार में रहते हुए संसारी बन्धन से मुक्त होना बड़ा कठिन आह्वान है । इसी लिए श्री कृष्ण कह रहे हैं की निर्गुण निराकार परमात्मा की उपासना कर उन्हें जानना और उनसे ऐक्य प्राप्त करना कठिन है , बहुत कष्टदायी है ।
श्री कृष्ण का कहने का तात्पर्य यह नहीं की सगुण साकार की उपासना अति सरल है । न ही विग्रह द्वारा उपासना को श्रेष्ट बता रहे हैं । उस मार्ग में भी कई कठिनाइयाँ हैं । इन्द्रियों के अनुभव में ही थम जाने की शक्यता है । विग्रह की उपासना करने की भावना लोप होकर विग्रह के माध्यम से परमात्मा की उपासना करने की भावना बनानी चाहिए । यह बड़ा कठिन है । यह मार्ग भी कठिन है , परन्तु उस मार्ग की तुलना में यह थोड़ा सुलभ है । काम कष्ट वाला मार्ग मान सकते हैं ।
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