ॐ
गीता की कुछ शब्दावली - १५३
सन्नियम्येन्द्रिय ग्रामम् ... (अध्याय १२ - श्लोक ४)
ஸந்நியம்யேந்த்ரிய க்ராமம் ... (அத்யாயம் 12 - ஶ்லோகம் 4)
Sanniyamyendriya Graamam ... (Chapter 12 - Shlokam 4)
अर्थ : इन्द्रियों के समूह को अच्छी तरह नियमित कर ...
इन्द्रियों के समूह को इन्द्रिय ग्राम कहा । इन्द्रियाँ अलग अलग अवश्य हैं । प्रत्येक इन्द्रिय का कार्य भी विशेष है । परन्तु सभी इन्द्रियाँ बाहरी विश्व के विषयों का विवरण भीतर लाते हैं । विषयों के साथ अपने संयोग के अनुभव भीतर पहुँचाते हैं । इसी कारण श्री कृष्ण इन्हें एक समूह बताकर इन्द्रिय ग्राम कह रहे हैं ।
इन्द्रियों को नियम बद्ध कर ... निर्गुण निराकार की पासना में यह प्रथम निर्बन्ध है , श्री कृष्ण के अनुसार । निर्गुणी , निराकारी उस परब्रह्म परमात्मा की उपासना कैसे संभव है ? अपने पास तो काल देश दोनों ही माप में सीमित शरीर है । इन्द्रिय जो हमें प्राप्त अन्य उपकरण हैं , वे भी सीमित क्षमता वाले हैं । वे सगुण साकार को जानने में सक्षम हैं । अपने आँख आकारों को देख सकते हैं । रंगो को पहचान सकती हैं । संसारी विषयों के गुणों में रंग एक गुण है । (सूक्ष्मता से देखें तो पहचानती बुद्धि है , आँख नहीं । आँख तो केवल अन्दर पहुँचाने का कार्य करती है । आँखों के द्वारा देखते हैं तो हम यह कह देते हैं की आँखें देखती हैं ।) ऐसे ही अन्य इन्द्रिय भी केवल आकारों को और गुणों को ही जानने की क्षमता रखते हैं । इन सीमित क्षमता वाले उपकरणों से उस परब्रह्म परमात्मा की उपासना कैसे करें जो सर्व व्यापक है , प्रकृति में प्रत्येक चलन के पीछे कारण शक्ति है , सभी में रहकर भी सभी से असम्बद्ध है , अति सूक्ष्म है , चिन्तन , वर्णन से परे है । इसी लिए इन्द्रियों को नियम बद्ध करने की बात है । इन्द्रियों की क्षमता का विस्तार तो असम्भव है । तो उनको अपने सहज कार्य से रोकने की बात है । एक दृष्टी से उन्हें सामर्थ्य विहीन बनाने की बात है । निर्गुण निराकार की उपासना में यह प्रथम आवश्यकता है । इसी लिए श्री कृष्ण इसे क्लिष्ट या कष्ट मय प्रयत्न बता रहे हैं ।
सगुण साकार की उपासना में , गुणों सहित आकार की उपासना में इन्द्रियों के विषय में चिन्ता की कोई आवश्यकता नहीं । इन्द्रियों को नियमित करने की भी चिन्ता नहीं । परमात्मा को ही सगुण साकार और सीमित कर देते हैं । इस स्थिति में उससे सम्बन्ध बनाना , हमारे इस सीमित शरीर और सीमित क्षमता वाले इन्द्रियों के माध्यम , सुलभ हो जाता है । उसे स्पर्श कर सकते हैं । उसे स्नान कराकर उसका सर्वालंकार कर सकते हैं । उससे बोल सकते हैं । उसके लिए रो सकते हैं , गा सकते हैं , नाच सकते हैं । उसको भोजन करा सकते हैं । लोरी गाकर उसे सुला सकते हैं । इन्द्रियों का नियमन करना यह एक कार्य नहीं रह जाता । उपासना के परिणामतः वह सहज हो जाता है । इन्द्रियों को संसार का और कुछ रुचिकर रहता नहीं । आँखो के लिए उसी का आकार , कानों के लिये उसी के गुणगान और कीर्ति कथन , जिह्वा के लिये उसी का प्रसाद , पैरों के लिये उसका आलय , हाथों के लिए उसका दिव्यालंकार ... संसारी आकर्षणों में इन्द्रियों की रूचि रहती नहीं । विशेष प्रयत्न के विना ही इन्द्रिय नियमित हो जाते हैं । इसी लिए श्री कृष्ण कहते हैं की सगुण साकार की उपासना सुलभ है ।
प्रिय गोपाल जी , सादर सप्रेम नमस्कार! एवं शुभकामनाएं!
ReplyDelete