ॐ
गीता की कुछ शब्दावली - १५८
सर्वकर्मफलत्यागं ततः कुरु ... (अध्याय १२ - श्लोक ११)
ஸர்வ கர்ம ஃபல த்யாகம் குரு ... (அத்யாயம் 12 - ஶ்லோகம் 11)
SarvaKarmaPhala Tyaagam tatah Kuru ... (Chapter 12 - Shlokam 11)
अर्थ : सभी कर्मों के फल को त्याग दे ।
सगुण उपासना में श्री कृष्ण का एक सुझाव है यह । यह कहा की कर्मों को मेरे लिये कर । अब यह कह रहे हैं की कर्मों के फलों को त्याग दो या मुझे अर्पित कर दो ।
प्रत्येक कर्म कोई न कोई फल लेकर आता है । फल ही कर्म के लिये प्रेरणा है । सम्भाव्य फल प्राप्ती ही कर्म के लिये कारण है । फल प्राप्ति की सम्भावना न हो तो कर्म होते ही नहीं । अपने आसपास अधिकांश जनों की मनोवृत्ति यही है ।
श्री कृष्ण कहते हैं कर्म फल को त्याग दे । इसका यह अर्थ नहीं हुआ की फल लेना नहीं । यह अर्थ भी नहीं की फलों का तिरस्कार करो । प्राप्त फल का स्वीकार अवश्य करो । परन्तु फल का राग न करो , फल का पीछा न करो । कर्म जो किया है तो फल पर अपना ही अधिकार है ऐसा न समझो । कर्मफल पर अधिकार जताते ही अहंकार जगता है । अहंकार और भक्ति ये दोनों में विरोधाभास है । अहंकार है तो भक्ति नहीं । भक्ति का आधार समर्पण है । उसमे भी अहंकार का समर्पण सर्वाधिक कठिन है परन्तु अनिवार्य है ।
प्रत्येक कर्म कोई न कोई फल लेकर आता है । फल ही कर्म के लिये प्रेरणा है । सम्भाव्य फल प्राप्ती ही कर्म के लिये कारण है । फल प्राप्ति की सम्भावना न हो तो कर्म होते ही नहीं । अपने आसपास अधिकांश जनों की मनोवृत्ति यही है ।
श्री कृष्ण कहते हैं कर्म फल को त्याग दे । इसका यह अर्थ नहीं हुआ की फल लेना नहीं । यह अर्थ भी नहीं की फलों का तिरस्कार करो । प्राप्त फल का स्वीकार अवश्य करो । परन्तु फल का राग न करो , फल का पीछा न करो । कर्म जो किया है तो फल पर अपना ही अधिकार है ऐसा न समझो । कर्मफल पर अधिकार जताते ही अहंकार जगता है । अहंकार और भक्ति ये दोनों में विरोधाभास है । अहंकार है तो भक्ति नहीं । भक्ति का आधार समर्पण है । उसमे भी अहंकार का समर्पण सर्वाधिक कठिन है परन्तु अनिवार्य है ।
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