ॐ
गीता की कुछ शब्दावली - १६२
संतुष्ट ... (अध्याय १२ - श्लोक १४)
ஸந்துஷ்ட ... (அத்யாயம் 12 - ஶ்லோகம் 14)
Santushta ... (Chapter 12 - Shlokam 14)
अर्थ : तृप्त ... पूर्ण तृप्त ।
तुष्ट याने तृप्त , पूर्ण तृप्त । शब्द के आगे सं लगता है तो अर्थ होता है ... अच्छी तरह या उच्चतम तृप्ति । संतोष का अर्थ मनस में हर्ष या आल्हाद भी होता है । दोनों एक ही बात है । मन में तृप्ति जगने से ही मन हर्षित या प्रसन्न होता है । मन परिपूर्ण तृप्ति से भर जाता है तो मन में आनन्द , किञ्चित भी दुःख के मिश्रण के बिना आनन्द खिलता है । अतृप्त मन दुःखी होता है । थोड़ी भी अतृप्ति मन को दुःखी बना देती है । अतृप्त मन आनन्द या आल्हाद से वंचित होता है ।
सामान्यतः मनुष्य कमियाँ देखता है । किसी भी अनुभव के बाद उसमे निहित दोष ही मनुष्य के मन में रह जाता है । कर्ण मधुर भजन में एक घंटा भाग लेता है । परन्तु 'प्रसाद मिला नहीं' या 'हॉल में हवा नहीं थी' जैसे किसी दोष भाव के साथ घर लौटता है । दोष दृष्टी और मन में दोष भाव के अभाव यह दुर्लभ प्राप्त है । ये व्यक्ति श्रेष्ट हैं । जो भक्त पूर्ण तृप्त है , जो मिले , जैसे मिले , जितना मिले या मिले नहीं भी तो जो परम संतोष का अनुभव करता है उसे ही अपना परम प्रिय भक्त कह रहे हैं श्री कृष्ण ।
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