ॐ
गीता की कुछ शब्दावली - १६४
हर्षामर्ष भयोद्वेगैर्मुक्तः । (अध्याय १२ - श्लोक १५)
ஹர்ஷாமர்ஷபயோத்வேகைஹ் முக்தஹ் ... (அத்யாயம் 12 - ஶ்லோகம் 15)
HarshaamarshaBhayodhvegaih Muktah .. (Chapter 12 - Shlokam 15)
अर्थ : जो हर्ष , अमर्ष , भय , उद्वेग आदि से रहित है ।
"भावना भड़कना" कहते हैं । उद्वेग पूर्ण भावना मन को उत्तेजित कराती है । मन को अस्थिर बनाती है । शान्ति व समत्त्व को प्राप्त करना ही मन के लिए उचित साधना है । इसी मनःस्थिति में चिन्तन सक्रिय रहता है । सही और गलत को परखकर , करणीयम और अकरणीयम जानकर सही सुझाव देने वाली बुद्धि सक्रीय रहती है ।
"भावना के वश में जाना" कहते हैं । अपने अन्तःकरण स्व - वश में रहें , यही उत्तम अवस्था है । भावना के वश में हो तो हम भावना के मानो कठपुतली बन जाते हैं । बुद्धि के सुझाव पर कर्म सही होते हैं । भावना वश अवस्था में बुद्धि लुप्त हो जाती है । उस अवस्था में हमसे करणीय कर्म ही होंगे यह निश्चित नहीं ।
हर्ष सन्तोष का पर्यायी शब्द नहीं । सन्तोष में तृप्ति और उस कारण मनःशान्ति जुड़े हैं । हर्ष में हड़बड़ाहट , उत्साह में होश खोना भी संलग्न है । आङ्ग्ल भाषा में 'Euphoria' जिस भाव को प्रकट करता है , वही हर्ष शब्द से प्रकट होता है । इसका विपरीत शब्द है शोक या depression । अन्यों की उन्नति देखकर जलना , यही अमर्ष शब्द का अर्थ । भय भी हड़बड़ाहट पूर्ण स्थिति है । अस्थिर अवस्था है । भयाङ्कित अवस्था में मनुष्य के इन्द्रिय , आँख , कान , जैसे शिथिल हो जाते हैं । हाथ पैर कांपते हैं , अतः अस्थिर हो जाते हैं ।
भावना से भड़काया जाना भक्त के लिये उचित नहीं । विशेषतः ऐसे अधम भावना के वश होना भक्त में भक्ति भाव को नष्ट कराना है । इसीलिए श्री कृष्ण कह रहे हैं की , "इनसे रहित भक्त मेरे लिए अतीव प्रिय है ।"
"भावना के वश में जाना" कहते हैं । अपने अन्तःकरण स्व - वश में रहें , यही उत्तम अवस्था है । भावना के वश में हो तो हम भावना के मानो कठपुतली बन जाते हैं । बुद्धि के सुझाव पर कर्म सही होते हैं । भावना वश अवस्था में बुद्धि लुप्त हो जाती है । उस अवस्था में हमसे करणीय कर्म ही होंगे यह निश्चित नहीं ।
हर्ष सन्तोष का पर्यायी शब्द नहीं । सन्तोष में तृप्ति और उस कारण मनःशान्ति जुड़े हैं । हर्ष में हड़बड़ाहट , उत्साह में होश खोना भी संलग्न है । आङ्ग्ल भाषा में 'Euphoria' जिस भाव को प्रकट करता है , वही हर्ष शब्द से प्रकट होता है । इसका विपरीत शब्द है शोक या depression । अन्यों की उन्नति देखकर जलना , यही अमर्ष शब्द का अर्थ । भय भी हड़बड़ाहट पूर्ण स्थिति है । अस्थिर अवस्था है । भयाङ्कित अवस्था में मनुष्य के इन्द्रिय , आँख , कान , जैसे शिथिल हो जाते हैं । हाथ पैर कांपते हैं , अतः अस्थिर हो जाते हैं ।
भावना से भड़काया जाना भक्त के लिये उचित नहीं । विशेषतः ऐसे अधम भावना के वश होना भक्त में भक्ति भाव को नष्ट कराना है । इसीलिए श्री कृष्ण कह रहे हैं की , "इनसे रहित भक्त मेरे लिए अतीव प्रिय है ।"
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