ॐ
गीता की कुछ शब्दावली - १६१
सम दुःख सुख ... (अध्याय १२ - श्लोक १३)
ஸம து:க ஸுக ... (அத்யாயம் 12 - ஶ்லோகம் 13)
Sama Du:kha Sukha ... (Chapter 12 - Shlokam 13)
अर्थ : दुःख और सुख में सम ।
दुःख और सुख में सम .. भक्त , भगवान के प्रिय भक्त का लक्षण है यह । मनुष्य सुख को अपने सामर्थ्य और कर्तृत्त्व की कमाई मानता है । दुःख को भगवान द्वारा दिया गया दण्ड मानता है । लाभ हुआ तो स्वयम के परिश्रम का फल समझता है और नष्ट होने से कहता है , "क्या करें ? बस उसी की चलती है ।" मार लगबे से 'माँ' याद आती है , माँ को स्मरण कर आलाप करता है । मिठाई मिलने पर स्मरण में कौन आये ? तत्क्षण मुँह में डालता है यह कहकर की "मेरा भाग्य । आज मुझे मिठाई मिली है ।" जब तक स्वस्थ है , तब तक मदहोश अवस्था में भटकता है । रोग उत्पन्न होने पर स्वयं को महात्मा मानते हुए , "निष्पापी मुझे भगवान ने कठोर दंड दे दिया" कहकर भगवान को कोसता है ।
दुःख और सुख दोनों अवस्था में सम रहना , दोनों अवसरों में भगवान के ही स्मरण में मग्न रहना , दोनों को उसी का कृपा - प्रसाद के रूप में स्वीकारना यही भक्त का का लक्षण है । एक काल्पनिक कथा है । श्री राम समुद्र तट पर बैठे अपने बाणों को तर्कश से निकालकर रेत में गाढ़ा । पश्चात एक एक बाण को रेत से निकालकर पोछा और यथा स्थान रखते गए । श्री राम ने एक बाण निकाला तो उसके नोक में फंसा एक मेंढक देखा । श्री राम हड़बड़ा गये । "अरे ! बाण का नोंक तुम्हे छूते ही चिल्ला दिया होता ।" "क्यूँ चिल्लाऊं ?? मैं जन्म लिया तब से आज तक आपका ही नाम लेता रहा । मुझे आपकी कृपा से समय समय पर यथावश्यक भोजन मिलता रहा । देखिये ! मेरे इस हृष्ट पुष्ट शरीर को । आज आपके ही हाथ से बाण का नोंक मिल जाय तो उसे क्यूँ ठुकराऊँ ? आप ने दिया हुआ भोजन स्वीकारा है तो आप ही के हाथ से बाण का नोंक भी स्वीकारूँ । चिल्लाने का कारण ही नहीं ।" मेंढक ने उत्तर दिया । सुख और दुःख में सम ।
दयाराम सिन्ध के एक उपन्यासक थे । उनका साधू बनना एक रोचक घटना है । वे धनार्जन और परिवार का पालन के लिए ही प्रवचन करते थे । विषय आध्यात्मिक था । ज्ञान की अनुभूति हुई नहीं थी । अतः विषय उनके होठों से ही निकलता था । ह्रदय से नहीं । एक बार जब वे प्रवचन के लिए गए हुए थे , घर में उनके तीनों बेटों की महामारी से मृत्यु हो गयी । दयाराम घर लौटे तो तीनो मृत देहों को देखकर मूर्छित हो गये । शोक ग्रस्त हुए सर भूमि पर पटक पटक कर रोते और मूर्छित हो जाते । पत्नी ने उनसे कहा की , "पुत्र उसने दिए । उसने दिए हुए पुत्रों को वह वापस ले गया । इस में शोक करने की क्या बात है ??" इनकी आध्यात्मिक दृष्टी खुली । ज्ञान प्रकट हुआ । तत्क्षण साधू बन गये । विषय इन्हें परिचित था । यही विषय तो वे अपने प्रवचनों में बोलते थे । परन्तु , आज पत्नी के शब्दों ने उन्हे अनुभूति दिलायी । दुःख हुए सुख में सम ।
दुःख और सुख दोनों अवस्था में सम रहना , दोनों अवसरों में भगवान के ही स्मरण में मग्न रहना , दोनों को उसी का कृपा - प्रसाद के रूप में स्वीकारना यही भक्त का का लक्षण है । एक काल्पनिक कथा है । श्री राम समुद्र तट पर बैठे अपने बाणों को तर्कश से निकालकर रेत में गाढ़ा । पश्चात एक एक बाण को रेत से निकालकर पोछा और यथा स्थान रखते गए । श्री राम ने एक बाण निकाला तो उसके नोक में फंसा एक मेंढक देखा । श्री राम हड़बड़ा गये । "अरे ! बाण का नोंक तुम्हे छूते ही चिल्ला दिया होता ।" "क्यूँ चिल्लाऊं ?? मैं जन्म लिया तब से आज तक आपका ही नाम लेता रहा । मुझे आपकी कृपा से समय समय पर यथावश्यक भोजन मिलता रहा । देखिये ! मेरे इस हृष्ट पुष्ट शरीर को । आज आपके ही हाथ से बाण का नोंक मिल जाय तो उसे क्यूँ ठुकराऊँ ? आप ने दिया हुआ भोजन स्वीकारा है तो आप ही के हाथ से बाण का नोंक भी स्वीकारूँ । चिल्लाने का कारण ही नहीं ।" मेंढक ने उत्तर दिया । सुख और दुःख में सम ।
दयाराम सिन्ध के एक उपन्यासक थे । उनका साधू बनना एक रोचक घटना है । वे धनार्जन और परिवार का पालन के लिए ही प्रवचन करते थे । विषय आध्यात्मिक था । ज्ञान की अनुभूति हुई नहीं थी । अतः विषय उनके होठों से ही निकलता था । ह्रदय से नहीं । एक बार जब वे प्रवचन के लिए गए हुए थे , घर में उनके तीनों बेटों की महामारी से मृत्यु हो गयी । दयाराम घर लौटे तो तीनो मृत देहों को देखकर मूर्छित हो गये । शोक ग्रस्त हुए सर भूमि पर पटक पटक कर रोते और मूर्छित हो जाते । पत्नी ने उनसे कहा की , "पुत्र उसने दिए । उसने दिए हुए पुत्रों को वह वापस ले गया । इस में शोक करने की क्या बात है ??" इनकी आध्यात्मिक दृष्टी खुली । ज्ञान प्रकट हुआ । तत्क्षण साधू बन गये । विषय इन्हें परिचित था । यही विषय तो वे अपने प्रवचनों में बोलते थे । परन्तु , आज पत्नी के शब्दों ने उन्हे अनुभूति दिलायी । दुःख हुए सुख में सम ।
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