ॐ
गीता की कुछ शब्दावली - १५९
गीता की कुछ शब्दावली - १५९
त्यागच्छान्तिरनन्तरम् ... (अध्याय १२ - श्लोक १२)
த்யாகாத் ஶாந்திரனந்தரம் ... (அத்யாயம் 12 - ஶ்லோகம் 12)
Tyaagacchaanthiranantharam ... (Chapter 12 - Shlokam 12)
अर्थ : त्याग से परम शान्ति की प्राप्ति होती है ।
भोग में सुख का जन्म होता है । त्याग में शान्ति का । सुख क्षण भर का सुख का अनुभव कर सकते हैं भोग में । भोग करने के उस क्षण में सुख का अनुभव कर सकते हैं । सुख एक अनुभव मात्र है । शान्ति एक स्थिति । मनःस्थिति । काल प्रवाह में शान्ति स्वभाव में परिवर्तित हो जाती है ।
भोग में सुख प्राप्ति की अपेक्षा , सुख अनुभव की लालसा ये ही कारण हैं इस क्षण भर के सुख का । सुख के साथ मन में कौतुक सहित हड़बड़ाहट भी उत्पन्न होता है । भोग कर नहीं सके या भोग से यथा इष्ट सुख न मिले तो नैराश्य जगता है । अपेक्षा के अभाव में , इच्छा की अभाव में ना हड़बड़ाहट है , ना नैराश्य । यही शान्ति का आधार है । इसके ऊपर अन्यों के लिए भोग का त्याग किया जाता है और उनको सुखी होते हुए देखने में आनन्द जगता है । इस कारण मन में स्थाई शान्ति जन्म लेती है ।
रेल प्रवास में खिड़की के पास वाली सीट पर बैठकर प्रवास करने का सुख विशेष है । विवाह के पश्चात उस स्थान को और उससे प्राप्त सुख को पत्नी के लिए छोड़ देने से और उसे हर्षित होते हुए देखने में अधिक आनन्द है । आगे जाकर बच्चे के लिए इस स्व इच्छा को त्याग देने से मन में उत्पन्न शान्ति अति विशेष है ।
धीरे धीरे मन में यही भावना अन्य सभी विषयों में उत्पन्न हो जाए तो , मन में अपेक्षा और राग या इच्छा मिट जाये तो मन में निरन्तर शान्ति बस जाती है । लेने में सुख है । देने में , त्याग में आनन्द है । दे रहा हूँ , त्याग कर रहा हूँ यह भावना भी न रहे तो , अपेक्षा और इच्छा न रहे तो परम शान्ति का , निरन्तर शान्ति का जन्म होता है और यही निज स्वभाव बन जाता है ।
भोग में सुख प्राप्ति की अपेक्षा , सुख अनुभव की लालसा ये ही कारण हैं इस क्षण भर के सुख का । सुख के साथ मन में कौतुक सहित हड़बड़ाहट भी उत्पन्न होता है । भोग कर नहीं सके या भोग से यथा इष्ट सुख न मिले तो नैराश्य जगता है । अपेक्षा के अभाव में , इच्छा की अभाव में ना हड़बड़ाहट है , ना नैराश्य । यही शान्ति का आधार है । इसके ऊपर अन्यों के लिए भोग का त्याग किया जाता है और उनको सुखी होते हुए देखने में आनन्द जगता है । इस कारण मन में स्थाई शान्ति जन्म लेती है ।
रेल प्रवास में खिड़की के पास वाली सीट पर बैठकर प्रवास करने का सुख विशेष है । विवाह के पश्चात उस स्थान को और उससे प्राप्त सुख को पत्नी के लिए छोड़ देने से और उसे हर्षित होते हुए देखने में अधिक आनन्द है । आगे जाकर बच्चे के लिए इस स्व इच्छा को त्याग देने से मन में उत्पन्न शान्ति अति विशेष है ।
धीरे धीरे मन में यही भावना अन्य सभी विषयों में उत्पन्न हो जाए तो , मन में अपेक्षा और राग या इच्छा मिट जाये तो मन में निरन्तर शान्ति बस जाती है । लेने में सुख है । देने में , त्याग में आनन्द है । दे रहा हूँ , त्याग कर रहा हूँ यह भावना भी न रहे तो , अपेक्षा और इच्छा न रहे तो परम शान्ति का , निरन्तर शान्ति का जन्म होता है और यही निज स्वभाव बन जाता है ।
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