ॐ
गीता की कुछ शब्दावली - १६०
निर्ममो निरहङ्कारः ... (अध्याय १२ - श्लोक १३)
நிர்மமோ நிரஹங்காரஹ ... (அத்யாயம் 12 - ஶ்லோகம் 13)
Nirmamo Nirahankaarah ... (Chapter 12 - Shlokam 13)
अर्थ : निर्मम और निरहङ्कार ।
विना "मैं और मेरा" ... क्या संसारी जीवन में यह साध्य है ? क्या यह विचार जैसे आङ्ग्ल भाषा में कहते हैं यूटोपियन ? एक जीव के पास जैसे शरीर है , वैसे ही अहङ्कार । 'मैं हूँ' यह अन्तर्निहित अनुभूति तो अहंकार है । यह तो सदा सर्वदा साथ है । परमात्मा के तीन आधारभूत वृत्तियों में जैसा सत है वैसे संसारी जीवों में अहङ्कार ।
देह पञ्चभूत से निर्मित है । देह प्रकृति का प्रकट स्वरुप है । देह नश्वर है अवश्य । परन्तु इस का अशाश्वत अस्तित्त्व नकारा नहीं जा सकता । हाँ ! देह के प्रति आसक्ति , देह का अभिमान और देह का भान से मुक्त होना भक्त के लिए अवश्य है । वैसे ही अहङ्कार । यह नकारा नहीं जा सकता । अहन्कार भावना से मुक्ति ही अपेक्षित है । यह अहङ्कार या मैं भावना असत्य अंशों के साथ अपने आप को बाँध लेता है और उस असत्य 'मैं' का अभिमान करने लगता है । जैसे मैं शरीर हूँ ; मैं बुद्धिशाली हूँ ; । इस असत्य अहङ्कार से मुक्त होना यह सामान्य निरहङ्कार है ।
भक्त के लिये यह पर्याप्त नहीं । अपने साथ जन्मा , अपना सूक्ष्म शरीर का भाग जो अहङ्कार है उससे भी मुक्त होना अपेक्षित है । समर्पण से यह संभव है । तेरे लिए जियूँ , बस केवल तू है इस भावना से कर्म करुँ और शनैः शनैः अहङ्कार का लोप होना चाहिए । मैं का विस्मरण होना अपेक्षित है । निरहङ्कार कहते श्री कृष्ण का यही अभिप्राय है । ऐसा भक्त को अपना परम भक्त , अपना प्रिय भक्त घोषित कर रहे हैं श्री कृष्ण ।
जीव शरीर , मन , बुद्धि के साथ संसार में जन्मता है । संसार में जीते समय धन , पद , संपत्ति , घर , वाहन , पत्नी बच्चे आदि कई विषयों को एकत्रित करता है । यह अनिवार्य है । इनके विना संसारी जीवन असम्भव है । कम अधिक मात्रा में इनकी आवश्यकता है । इनके विना जीना निर्मम नहीं , बल्कि इनको अपना मानकर , इनपर अपना अधिकार जताने का प्रयत्न ही ममता है और इसका अभाव निर्मम । निर्मम भक्त को अपना प्रिय भक्त कह रहे हैं श्री कृष्ण ।
देह पञ्चभूत से निर्मित है । देह प्रकृति का प्रकट स्वरुप है । देह नश्वर है अवश्य । परन्तु इस का अशाश्वत अस्तित्त्व नकारा नहीं जा सकता । हाँ ! देह के प्रति आसक्ति , देह का अभिमान और देह का भान से मुक्त होना भक्त के लिए अवश्य है । वैसे ही अहङ्कार । यह नकारा नहीं जा सकता । अहन्कार भावना से मुक्ति ही अपेक्षित है । यह अहङ्कार या मैं भावना असत्य अंशों के साथ अपने आप को बाँध लेता है और उस असत्य 'मैं' का अभिमान करने लगता है । जैसे मैं शरीर हूँ ; मैं बुद्धिशाली हूँ ; । इस असत्य अहङ्कार से मुक्त होना यह सामान्य निरहङ्कार है ।
भक्त के लिये यह पर्याप्त नहीं । अपने साथ जन्मा , अपना सूक्ष्म शरीर का भाग जो अहङ्कार है उससे भी मुक्त होना अपेक्षित है । समर्पण से यह संभव है । तेरे लिए जियूँ , बस केवल तू है इस भावना से कर्म करुँ और शनैः शनैः अहङ्कार का लोप होना चाहिए । मैं का विस्मरण होना अपेक्षित है । निरहङ्कार कहते श्री कृष्ण का यही अभिप्राय है । ऐसा भक्त को अपना परम भक्त , अपना प्रिय भक्त घोषित कर रहे हैं श्री कृष्ण ।
जीव शरीर , मन , बुद्धि के साथ संसार में जन्मता है । संसार में जीते समय धन , पद , संपत्ति , घर , वाहन , पत्नी बच्चे आदि कई विषयों को एकत्रित करता है । यह अनिवार्य है । इनके विना संसारी जीवन असम्भव है । कम अधिक मात्रा में इनकी आवश्यकता है । इनके विना जीना निर्मम नहीं , बल्कि इनको अपना मानकर , इनपर अपना अधिकार जताने का प्रयत्न ही ममता है और इसका अभाव निर्मम । निर्मम भक्त को अपना प्रिय भक्त कह रहे हैं श्री कृष्ण ।
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