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गीता की कुछ शब्दावली - १७२


गीता की कुछ शब्दावली - १७२


ऋषिभिः बहुधा गीतं छन्दोभिः विविधैः पृथक ।  ब्रह्म सूत्र पदैश्चैव ।।  (अध्याय १३ - श्लोक ४)
ர்ஷீபிஹ் பஹுதா கீதம் ..  சந்தோபிஹ் விவிதைஹ் ப்ருதக் ..  ப்ரஹ்ம ஸூத்ர பதைஶ்சைவ ..  (அத்யாயம் 13 - ஶ்லோகம் 4)
RshiBhi: Bahudhaa Geetam ,  Chandobhi: Vividhai: Pruthak ...  BrahmaSootra Padaishchaiva ..  (Chapter 13 - Shloka 4)

अर्थ :  ऋषियों के द्वारा बहुत विस्तार से कहा गया है ।  वेद ऋचाओं द्वारा बहुत प्रकार से विभागशः कहा गया है ।  ब्रह्म सूत्र के पदों द्वारा भी कहा गया है ।

यह शब्दावली श्री कृष्ण की और एक महान मानसिकता का उजागर कर रही है ।  जब कोई उदात्त विचार सुनता है तो सामान्य मनुष्य विचार को छोड़ , उसे कहने वाले की प्रशंसा में लग जाता है ।  एक अच्छी कविता पढ़ी तो उसे लिखने वाले के बारे में जानने में समय लगाएगा ।  रेडियो में कोई अच्छा भाषण सूना या मन को आल्हादित करने वाला संगीत सुना तो उसका आनन्द लेना छोड़कर वक्ता या गायक को ढूंढने लगता है ।  यह अनावश्यक है ।  फिर भी ईर्ष्या के विना सह मनुष्य की प्रशंसा करते हुए इस सामान्य मनुष्य की उपेक्षा हो सकती है ।  परन्तु यदि गायक स्वयं , लेखक और वक्ता स्वयं , कवी स्वयं इस दिशा में प्रयत्न करें तो क्या कहें ??

आज कॉपीराइट , पेटेंट जैसे नियमों ने इस वृत्ति को बढ़ा दिया है ।  एक पुस्तक लिख दिया और छाप दिया की इसका कॉपीराइट है ।  याने सन्देश यही की "इस पुस्तक में लिखा गया विषय मेरा अपना खोज है ।"  नवीन युग के ऐसे महाराज हैं जो बातें तो वेद और उपनिषद् की करते हैं परन्तु प्रवचन ऐसे देते हैं जैसे ये सब उनके चिन्तन मन्थन से निकले विषय हैं ।  यहाँ तमिल नाड में ऐसा एक महाराज था जो स्वयं को महर्षि कहती थे और उनके शिष्य यह कहकर फिरते थे की महाराज को उनके चिंतन के लिये नोबल पुरस्कार मिलने वाला है ।  श्री (श्री श्री) रविशंकर एक श्वास अभ्यास सिखाते हैं जिसका उन्हों ने पेटेंट किया है ।  उनकी लाखों करोड़ों की कमाई में पतञ्जलि को क्या देने वाले हैं ??  समीप काल में तमिल सिनिमा के संगीतकार श्री इलयाराजा और गायक श्री S P बालसुब्रह्माणियन के बीच एक विवाद खड़ा हुआ ।  श्री इलयाराजा ने अपने रचित गीतों को गाने से Shri S P B को मना किया ।  कहा की ये उनके कॉपीराइट हैं ।  सप्त स्वरों का खोज , उन स्वरों पर आधारित अनेकानेक रागों की रचना कर , विविध तालों का गणित लगाकर इलयाराजा जैसे संगीतकारों को संगीत रचना के लिए जिन अनजान पूर्वजों ने मंच बनाया , उनको क्या कॉपीराइट देने वाले हैं श्री इलयाराजा ?  लाखों रूपया फीस लेकर प्रोत्साहन और प्रेरणा के भाषण देने वाले श्री शिव खेरा अपने भाषणों में जातक कथा , पंचतंत्र की कथा , बोधि सत्त्व की कथा आदि कहते थे ।  लाखों में बेची गयी उनकी पुस्तिका "You Can Win" में भी इन कथाओं को लिखा और कॉपीराइट कर लिया परन्तु यह स्वीकारने की विनम्रता उनमे नहीं की ये कथा मेरे नहीं , अपने पूर्वजों ने सहस्रों वर्ष पूर्व लिखा है ।"

इसके ठीक विपरीत है अपनी परम्परा ।  नभस्पर्शी मंदिरों का निर्माण किया ..  परन्तु अपना नाम उस मन्दिर के नींव के पत्थर पर या कलश के पत्थर पर लिखवाया नहीं ।  गम्भीर और गहरे शास्त्र लिखा परन्तु कहीं अपना नाम दर्ज करवाया नहीं ।  वेद उपनिषदों में उन्नत शाश्वत सत्य लिखा , स्वयम के नाम का अपरोक्ष उल्लेख भी किया नहीं ।  कोटानुकोटि हृदयों में बसे श्री राम की प्रेरक कथा श्री रामायण को लिखने वाले श्री वाल्मीकि यह कहते की इस कथा श्री ब्रह्माजी द्वारा काकभृशुण्डि को , काकभृशुण्डी द्वारा श्री नारद को और नारदजी द्वारा स्वयं उनको (श्री वाल्मीकि को) कही गयी ।  यह मेरी रचना है , मेरी कल्पना से उदित काव्य है , यह कहकर अपने आप को गौरवान्वित करने का प्रयत्न किया नहीं ।  श्री कृष्ण भी उसी महान परम्परा के अनुरूप यहाँ और गीता में अन्य सन्दर्भ में प्रकट हो रहे हैं ।  यहाँ कह रहे हैं की , "ऋषियों के द्वारा बहुत विस्तार से कहा गया है ।  वेद ऋचाओं द्वारा बहुत प्रकार से विभागशः कहा गया है ।  ब्रह्म सूत्र के पदों द्वारा भी कहा गया है ।"  "अरे !  यह कोई नया विषय कह नहीं रहा ।  यह तो अपने पूर्वजों द्वारा कई बार कई संदर्भो में कहा गया है ।  मेरी प्रशंसा ना कर ।  मुझे नहीं , इस विचार की ओर ध्यान दे ।"  ये उनके शब्दों की भावना है ।  अर्जुन का ध्यान स्वयं की ओर न होकर पूर्णतः विचार की ओर स्थिर रहे , यही श्री कृष्ण का प्रयत्न है ।

अद्भुत ... अत्यद्भुतम ..  श्री कृष्ण वासुदेव को शत कोटि नमस्कार ।

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