ॐ
गीता की कुछ शब्दावली -१७८
सर्वतः पाणिपादं तत्सर्वतोSक्षि शिरोमुखम् सर्वतः श्रुतिमल्लोके ... (अध्याय १३ - श्लोक १३)
ஸர்வதஹ பாணிபாதம் தத் ஸர்வதோக்ஷி ஶிரோமுகம் ஸர்வதஹ ஶ்ருதிமல்லோகே .. (அத்யாயம் 13 - ஶ்லோகம் 13)
Sarvatah PaaniPaadam Sarvatah Shiromukham Sarvatah ShrutiMalloke .. (Chapter 13 - Shlokam 13)
अर्थ : सर्व स्थानों में हाथों और पैरों वाले , सभी स्थानों में आँख , सर और मुखों वाले , सर्व स्थानों में कानों वाले हैं श्री परमात्मा ...
यह वर्णन है निराकार सगुण परमात्मा का । इसके पूर्व श्लोक में श्री कृष्ण ने निर्गुण निराकार परमात्मा का वर्णन किया । यही हिन्दू धर्म की सुन्दरता है । यही हिन्दू धर्म की शक्ति है । संसार में जितने प्रकार के उपासना पद्धति है , भगवान के बारे में जितनी कल्पनायें हैं , जितने सम्प्रदाय हैं , उन सभी को हिन्दू धर्म अपने छत्र छाया में समा लेने की क्षमता रखता है । हिन्दू धर्म ने अपने आप को विचार , धर्म गुरु , पूजा पद्धति आदि किसी भी विषय में सीमित रखा नहीं । यह सार्वभौमिक है । समय की सीमा हिन्दू धर्म को बाँध नहीं सकी । यह देश और समुदाय के सीमाओं को लांघकर विश्व भर के मानव समाज के लिये उक्त धर्म है ।
यह वर्णन है निराकार सगुण परमात्मा का । इसके पूर्व श्लोक में श्री कृष्ण ने निर्गुण निराकार परमात्मा का वर्णन किया । यही हिन्दू धर्म की सुन्दरता है । यही हिन्दू धर्म की शक्ति है । संसार में जितने प्रकार के उपासना पद्धति है , भगवान के बारे में जितनी कल्पनायें हैं , जितने सम्प्रदाय हैं , उन सभी को हिन्दू धर्म अपने छत्र छाया में समा लेने की क्षमता रखता है । हिन्दू धर्म ने अपने आप को विचार , धर्म गुरु , पूजा पद्धति आदि किसी भी विषय में सीमित रखा नहीं । यह सार्वभौमिक है । समय की सीमा हिन्दू धर्म को बाँध नहीं सकी । यह देश और समुदाय के सीमाओं को लांघकर विश्व भर के मानव समाज के लिये उक्त धर्म है ।
श्री परमात्मा के हाथ , पैर , आँख , कान , मुँह , सर्वदूर हैं । भक्त की भावना ही प्रधान है । भक्त यदि परम भावना से देना चाहे , कहीं भी और कभी भी , उसे स्वीकार करने श्री परमात्मन के हाथ उसी क्षण और उसी स्थान पर आगे बढ़ते हैं । भक्त के मनमे देने का संकल्प जगे , तो उसे भी स्वीकार करने श्री परमात्मा के हाथ वहाँ भी उपलब्ध हैं । भक्त लुढ़कता है तो उसे सम्भालने श्री परमात्मा के हाथ तत्क्षण पहुँचते हैं ।
भक्त श्रद्धा भाव से झुकता है और नमस्कार करता है तो उसी स्थान पर श्री परमात्मा के पाद खड़े हैं , उसके नमस्कार को स्वीकार करने । भक्त श्री भगवान के मुख को जहाँ जहाँ देखना चाहे , वहाँ वहाँ श्री परमात्मा के प्रसन्न मुख हैं । सर्व स्थानों पर श्री परमात्मा के आँख हैं भक्त पर ध्यान रखते हुए आँख , उसे गिराने से बचाने वाले आँख । भक्त के मन की गहराई में छुपी भावना को देखा सकने वाले अति सूक्ष्म आँख वहाँ भी हैं । भक्त श्री भगवान को विदुर जैसे , सुदामा जैसे खिलाना चाहा तो , खाने के लिये श्री भगवान के मुँख वहीं उसके समीप है । भक्त की प्रार्थना सुनने , उसके अनकही इच्छा को भी सुनने श्री परमात्मा के कान सभी स्थानों में स्थित हैं । पुरुष सूक्त कहता है , "सहस्र शीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्र पाद " .. अर्थात वह हजारो सर वाला है , सहस्रों आँख वाला है , सहस्रों पैर वाला है । श्री परमात्मन सर्वव्यापी है , भक्त के लिए तत्क्षण उपलब्ध है , अपने सहस्रों आँख , कान , हाथ पैर के रूप में । भक्त से स्वीकारने , भक्त को सुनने , भक्त को सम्भालने , भक्त का रक्षण करने ।
श्री परमात्मा का निवास है दूर कैलाश में , वैकुण्ठ में । निस्सन्देह । परन्तु वह इस संसार में कण कण में व्याप्त है । वह बुलाये गए तत्क्षण भक्त के पास पहुँचता है । ध्वनि से तेज प्रकाश का प्रवास है । श्री अनुग्रह प्रकाश से तेज पहुँचता है । द्रौपदी दुर्योधन के सभा में त्रस्त अवस्था में थी और उसने अपने दोनों हाथ ऊपर उठा लिया और श्री कृष्ण को पुकारा .. "हे परम धाम ।" तत्क्षण श्री कृष्ण कौरव सभा मंटप में वस्त्र के रूप में पहुँचे द्रौपदी कष्ट का निवारा किया । आरण्य में द्रौपदी त्रस्त अवस्था में श्री कृष्ण का स्मरण किया , तो श्री कृष्ण तत्क्षण उसके द्वार पर खड़े थे और दुर्वास और उसके सहस्र शिष्यों को भर पेठ भोजन खिलाकर द्रौपदी का कष्ट मिटाया । दूर द्वारिका से आना नहीं पड़ा । वे तो वहीं थे और तत्क्षण पहुँचे । उसी प्रकार , मगर के मुख में फंसा गजेंद्र ने श्री महा विष्णु को पुकारा तो वैकुण्ठ में स्थित श्री महाविष्णु तत्क्षण वहाँ प्रकट हुए और गजेंद्र को मगर से छुड़वाया ।
"सर्वतः पाणिपादं तत्सर्वतोSक्षि शिरोमुखम् सर्वतः श्रुतिमल्लोके !!!"
Comments
Post a Comment