ॐ
गीता की कुछ शब्दावली - १७४
असक्तिः अनभिष्वङ्गः पुत्र दार गृहादिषु ।। (अध्याय १३ - श्लोक ९)
அஸக்திஹ் அனபிஷ்வங்கஹ் புத்ர தார க்ருஹாதிஷு .. (அத்யாயம் 13 - ஶ்லோகம் 9)
Asaktih Anabhshvangah Putra Daara Gruhaadhishu .. (Chapter 13 - Shloka 9)
अर्थ : पुत्र , स्त्री , घर आदि में आसक्तिरहित होना और एकात्मता (घनिष्ठ सम्बन्ध) ना होना ।
मनुष्य के लिए अति निकट , अतीव अपनत्त्व लगनेवाले तीन विषयों की उल्लेख कर रहे हैं श्री कृष्ण । पुत्र , दार और गृह । पुत्र से 'यह मुझसे उत्पन्न , मेरी उत्पत्ति है' इस भावना के कारण अपनत्त्व । विवाह का बन्धन और दीर्घ कालीन शारीरिक और मानसिक सम्बन्ध के कारण 'यह मेरी है' यह भाव पत्नी के साथ बांधती है । 'इसे मैं ने बनाया है । मेरे धन से , मेरी योजना से बनाया है । मेरे और मेरे परिवार के निवास के लिए बनाया है ।' यह भावना घर के साथ अपनत्त्व निर्माण करती है ।
क्या यह अपनत्त्व भाव सही है ? क्या ये मेरे हैं ? मेरी पत्नी किसी की पुत्री है । किसी की माँ है । अन्य किसी की बहन है । यह भौतिक दृष्टी से । आध्यात्मिक दृष्टी से प्रत्येक जीव आत्मा है । भगवान का अंश है । भगवान का है । संसार में शरीर धारण कर आता है तो अनेक रिश्ते नाते बनाता है । ये रिश्ते नाते केवल संसारी व्यवहार के लिए । श्री भगवान चौथे अध्याय में यह कहते हैं की 'मेरे अनेक जन्म हुए हैं । तुम ने भी अनेकदा जन्म लिया है । श्रीमद्भागवत में कपिल - देवहूति संवाद में भी यह विषय आता है । श्री कपिल कहते हैं की मैं इस संसार में कई बार आया हूँ । अनेकानेक माता पिता के द्वारा आया हूँ । इस जन्म में तुम्हारे द्वारा आया हूँ । उसी प्रकार मेरी पत्नी इस जन्म में मेरी पत्नी है । उसके कई जन्म हुए होंगे । वह कईयों की पत्नी रही होगी । पत्नियाँ मङ्गला गौरी व्रत करते समय यह प्रार्थना करती है की यही पुरुष अगले सात जन्मों में मेरा पुरुष बनें । जीवात्मा अपनी वासनाओं के अनुरूप शरीर ढूंढता है । शरीर पाकर संसार में अनेक प्रकार के रिश्ते नाते बनाता है । आत्मा तो इन सब से परे है ।
क्या पुत्र मेरे हैं ? फारसी कवी श्री खलील ज़िब्रान के अनुसार माता पिता और पुत्र का सम्बन्ध धनुष्य और बाण का सम्बन्ध जैसा है । बाण का अपना गन्तव्य है । अपना पथ है । धनुष्य बाण को 'अपना' मानकर स्वयम के साथ बांधकर रख नहीं सकता । बाण अपने मार्ग पर गमन कर अपना गन्तव्य तक पहुँचे , इसकी तैयारी करना , बस यही धनुष्य का कर्तव्य है , स्वयं अपनी तैयारी और बाण की भी तैयारी । और सत्य तो यह है की धनुष्य और बाण दोनों और किसी के हाथ में हैं और उसकी इच्छानुसार , उसकी योजनानुसार ही चलेंगे , चलाये जाएंगे ।
क्या घर मेरा है ? कल और किसी का था । आज मेरा है । कल और किसी का रहेगा । 'मेरा मेरा कहकर अपनत्त्व जमाने वाले को देखकर वह घर कहता होगा , "देखो ! यह और एक पागल आया है । पचास वर्ष पूर्व ऐसा ही एक पागल था जो मेरा मेरा का जाप करता था और आज मिटटी में गाढ़ दिया गया है ।"
प्रेम और आसक्ति या राग में भेद है । प्रेम में केवल उनके हित का चिन्तन है । अपनत्त्व भाव या राग में स्वयं के लिए उनसे अपेक्षा है । प्रेम में बन्धन नहीं जो राग में है । प्रेम में 'तूं ही है । राग में 'मैं' । "मैं जैसा कहता हूँ वैसा करो .." ; "मैं नहीं रहा तो ही तुम्हे समझेगा .." ; आदि शब्द राग के परिणाम हैं । पुत्र और पत्नी से प्रेम हो राग नहीं । घर के ओर ध्यान रहे । कर्तव्य भाव से घर में उत्पन्न दोष दूर करें । परन्तु घर के प्रति आसक्ति न हो ।
क्या यह अपनत्त्व भाव सही है ? क्या ये मेरे हैं ? मेरी पत्नी किसी की पुत्री है । किसी की माँ है । अन्य किसी की बहन है । यह भौतिक दृष्टी से । आध्यात्मिक दृष्टी से प्रत्येक जीव आत्मा है । भगवान का अंश है । भगवान का है । संसार में शरीर धारण कर आता है तो अनेक रिश्ते नाते बनाता है । ये रिश्ते नाते केवल संसारी व्यवहार के लिए । श्री भगवान चौथे अध्याय में यह कहते हैं की 'मेरे अनेक जन्म हुए हैं । तुम ने भी अनेकदा जन्म लिया है । श्रीमद्भागवत में कपिल - देवहूति संवाद में भी यह विषय आता है । श्री कपिल कहते हैं की मैं इस संसार में कई बार आया हूँ । अनेकानेक माता पिता के द्वारा आया हूँ । इस जन्म में तुम्हारे द्वारा आया हूँ । उसी प्रकार मेरी पत्नी इस जन्म में मेरी पत्नी है । उसके कई जन्म हुए होंगे । वह कईयों की पत्नी रही होगी । पत्नियाँ मङ्गला गौरी व्रत करते समय यह प्रार्थना करती है की यही पुरुष अगले सात जन्मों में मेरा पुरुष बनें । जीवात्मा अपनी वासनाओं के अनुरूप शरीर ढूंढता है । शरीर पाकर संसार में अनेक प्रकार के रिश्ते नाते बनाता है । आत्मा तो इन सब से परे है ।
क्या पुत्र मेरे हैं ? फारसी कवी श्री खलील ज़िब्रान के अनुसार माता पिता और पुत्र का सम्बन्ध धनुष्य और बाण का सम्बन्ध जैसा है । बाण का अपना गन्तव्य है । अपना पथ है । धनुष्य बाण को 'अपना' मानकर स्वयम के साथ बांधकर रख नहीं सकता । बाण अपने मार्ग पर गमन कर अपना गन्तव्य तक पहुँचे , इसकी तैयारी करना , बस यही धनुष्य का कर्तव्य है , स्वयं अपनी तैयारी और बाण की भी तैयारी । और सत्य तो यह है की धनुष्य और बाण दोनों और किसी के हाथ में हैं और उसकी इच्छानुसार , उसकी योजनानुसार ही चलेंगे , चलाये जाएंगे ।
क्या घर मेरा है ? कल और किसी का था । आज मेरा है । कल और किसी का रहेगा । 'मेरा मेरा कहकर अपनत्त्व जमाने वाले को देखकर वह घर कहता होगा , "देखो ! यह और एक पागल आया है । पचास वर्ष पूर्व ऐसा ही एक पागल था जो मेरा मेरा का जाप करता था और आज मिटटी में गाढ़ दिया गया है ।"
प्रेम और आसक्ति या राग में भेद है । प्रेम में केवल उनके हित का चिन्तन है । अपनत्त्व भाव या राग में स्वयं के लिए उनसे अपेक्षा है । प्रेम में बन्धन नहीं जो राग में है । प्रेम में 'तूं ही है । राग में 'मैं' । "मैं जैसा कहता हूँ वैसा करो .." ; "मैं नहीं रहा तो ही तुम्हे समझेगा .." ; आदि शब्द राग के परिणाम हैं । पुत्र और पत्नी से प्रेम हो राग नहीं । घर के ओर ध्यान रहे । कर्तव्य भाव से घर में उत्पन्न दोष दूर करें । परन्तु घर के प्रति आसक्ति न हो ।
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