ॐ
गीता की कुछ शब्दावली - १८४
क्षेत्रक्षेत्रज्ञ संयोगात्सञ्जायते .. (अध्याय १३ - श्लोक २६)
க்ஷேத்ரக்ஷேத்ரக்ஞ ஸம்யோகாத் ஸஞ்ஜாயதே . (அத்யாயம் 13 - ஶ்லோகம் 26)
Kshethra Kshetragya Samyoogaat Sanjaayathe .. (Chapter 13 - Shlokam 26)अर्थ : क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के संयोग से उत्पन्न हुए ।
यह सृष्टि प्रकृति और पुरुष के संयोग से निर्मित है । प्रकृति यह माया है । प्रकृति का एक अंश ही जड़ है । जड़ परिवर्तनशील है । नश्वर है । जड़ अपने आप में किसी भी प्रकार की क्रिया के लिए अक्षम है ।
पुरुष का अंश है चैतन्य । शाश्वत है । अविनाशी है । जड़ क्रियाओं की क्षमता प्रदान करने वाला यही चैतन्य है ।
सभी जीव जड़ और चैतन्य के संयोग से निर्मित हैं । शरीर यह जड़ है । शरीर चेताने वाला चैतन्य । शरीर क्रियाशील और क्षमतायुक्त होने का आभास देता है चैतन्य की उपस्थिति में ।
दूसरे अध्याय में जड़ - चैतन्य को देह और देही कहने वाले श्री कृष्ण यहाँ तेरहवे अध्याय में क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ कह रहे हैं । क्षत याने वह जो मिटाया जा सकता है । क्षेत्रज्ञ वह जो इस क्षेत्र को जानता हो , देख सकता हो ।
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