ॐ
गीता की कुछ शब्दावली - १८७
न लिप्यते .. न उपलिप्यते .. (अध्याय १३ - श्लोक ३१ , ३२)
ந லிப்யதே .. ந உபலிப்யதே
Na Lipyate ... Na Upalipyate .. (Chapter 13 - Shloka 31 , 32)
अर्थ : लिप्त होता नहीं ।
यह शब्दावली गीता में अनेकदा आयी है । आत्मा लिप्त होता नहीं । बन्धता नहीं । श्री परमात्मा लिप्त होते नहीं , बंधते नहीं । सर्वस्थ हैं । सर्व स्थानों में व्याप्त हैं । सर्व जीवों में स्थित हैं । सम्पूर्ण सृष्टि के आधार हैं । परन्तु कहीं भी लिप्त होते नहीं । हैं परन्तु नहीं ।
वायु गन्धों को , सुगन्ध या दुर्गन्ध , ले आता है । वायु प्रवाहित हो , वायु अपनी नासिका को स्पर्श करे , तो ही हमें गन्ध का आभास होता है । वायु न हो तो गन्ध रहते हुए भी हम उसका अनुभव कर नहीं सकते । परन्तु वायु गन्ध से लिप्त होता नहीं । गन्ध ही वायु से बंधता है ।
सूर्य अपने भा - करों से संसार में कण कण को छूता है । सभी सूर्य से प्रकाशमान होते हैं । परन्तु सूर्य प्रकाश किसी से लिप्त होता नहीं ।
आकाश सर्वदूर व्याप्त है । परन्तु कहीं भी किसी संग लिप्त होता नहीं ।
ये सभी सूक्ष्म हैं । श्री परमात्मा अति सूक्ष्म हैं । आत्मा जो श्री परमात्मा का अंश है , वह भी अति सूक्ष्म है । न लिप्यते ।
हम अपने निज आत्म स्वरुप को भूलकर , मिथ्या पूर्ण इकाई को 'मैं' मान लेते हैं और जड़ से बन्ध जाते हैं । अज्ञान हटने पर , निज मैं की अनुभूति होने पर जड़ से , देह , भूखंड , संपत्ति , धन से , पत्नी बच्चे और अन्य जीव से बन्धे जाते नहीं ।
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