ॐ
गीता की कुछ शब्दावली - १८६
यदा भूतपृथग्भावं एकस्थं .. तत एव विस्तारम् च अनुपश्यति .. (अध्याय १३ - श्लोक ३०)
யதா பூத ப்ருதக்பாவம் ஏகஸ்தம் .. தத ஏவ விஸ்தாரம் ச அநுபஶ்யதி ... (அத்யாயம் 13 - ஶ்லோகம் 30)
Yadaa Bhoota PruthagBhaavam Ekastham Tata Eva Vistaaram cha Anupashyati ... (Chapter 13 - Shlokam 30)
अर्थ : जो साधक अनेक रूप रंग में परिणामित अनेक जीवों में एक ही प्रकृति में स्थित देखता है .. जीवों को एक ही प्रकृति के विस्तार देखता है ..
अनेकानेक वर्ण , अनेकानेक रूप में दिखने वाले जीवों के शरीर एक ही प्रकृति के , एक ही महत के अनेकानेक प्रकट स्वरुप हैं । ये सभी शरीर एक ही प्रकृति में स्थित हैं । एक ही प्रकृति के विस्तार से ये भिन्न भिन्न शरीर सृजित हैं । चौदहवे अध्याय में श्री कृष्ण कहते हैं की प्रकृति सभी जीव शरीरों की योनी है और मैं बीज प्रदाता हूँ ।
प्रकृति ही महाभूत (पृथ्वी , जल , वायु , अग्नि और आकाश) के रूप में प्रकट होती है । इसी महाभूत के अंश हैं जीवों के शरीरों को घटित करने वाले पञ्च भूत । अपने शरीर पञ्च भूत से घटित हैं । मृत्यु के समय शरीर का विसर्जन होकर ये पञ्च भूत शरीर से महाभूत में घुल जाते हैं ।
लगभग २० लाख स्थावर जीव , २० लाख प्राणी जीव , २० लाख पक्षी वर्ग और २० लाख कीट जीव ऐसे ८२ लक्ष जीव हैं । प्रत्येक जीव शरीर का विशेष वर्ण , विशेष रूप । एक ही प्रकार का जीव लाखों , करोड़ों संख्या । एक ओर नित्य बदलते हुए , नाश होते हुए और दूसरी ओर नित्य प्रति क्षण सृजित होते हुए ये सभी शरीर । (विज्ञान में जिसे Metabolism कहते हैं ।) इन शरीरों से प्रति क्षण निकलकर प्रकृति के महाभूत में घुल मिलने पञ्च भूत । उसी प्रकार प्रकृति के महाभूत से एक अंश इन लाखों करोडों शरीरों में प्रकट होकर शरीरों का नवीनीकरण करने वाले पञ्च भूत । प्रकृति में चल रहा महत्त्व पूर्ण कार्य है यह ।
साधक इसे देखें । इसकी अनुभूति करें , यही श्री कृष्ण का कहना है । बहिर्दृश्य में दिखने वाले विविधता , वर्णजाल , रूप भेद आदि में मोहित न हो । इन अनेकानेक विविधतापूर्ण शरीर एक ही प्रकृति में स्थित हैं । एक ही प्रकृति के ये विस्तृत प्रकट स्वरुप हैं ये । साधक की दृष्टी जो दृश्य है उस में अदृष्ट को और जो अदृश्य है उसमे दृश्य को देख सकें , यह श्री कृष्ण की अपेक्षा है ।
प्रकृति ही महाभूत (पृथ्वी , जल , वायु , अग्नि और आकाश) के रूप में प्रकट होती है । इसी महाभूत के अंश हैं जीवों के शरीरों को घटित करने वाले पञ्च भूत । अपने शरीर पञ्च भूत से घटित हैं । मृत्यु के समय शरीर का विसर्जन होकर ये पञ्च भूत शरीर से महाभूत में घुल जाते हैं ।
लगभग २० लाख स्थावर जीव , २० लाख प्राणी जीव , २० लाख पक्षी वर्ग और २० लाख कीट जीव ऐसे ८२ लक्ष जीव हैं । प्रत्येक जीव शरीर का विशेष वर्ण , विशेष रूप । एक ही प्रकार का जीव लाखों , करोड़ों संख्या । एक ओर नित्य बदलते हुए , नाश होते हुए और दूसरी ओर नित्य प्रति क्षण सृजित होते हुए ये सभी शरीर । (विज्ञान में जिसे Metabolism कहते हैं ।) इन शरीरों से प्रति क्षण निकलकर प्रकृति के महाभूत में घुल मिलने पञ्च भूत । उसी प्रकार प्रकृति के महाभूत से एक अंश इन लाखों करोडों शरीरों में प्रकट होकर शरीरों का नवीनीकरण करने वाले पञ्च भूत । प्रकृति में चल रहा महत्त्व पूर्ण कार्य है यह ।
साधक इसे देखें । इसकी अनुभूति करें , यही श्री कृष्ण का कहना है । बहिर्दृश्य में दिखने वाले विविधता , वर्णजाल , रूप भेद आदि में मोहित न हो । इन अनेकानेक विविधतापूर्ण शरीर एक ही प्रकृति में स्थित हैं । एक ही प्रकृति के ये विस्तृत प्रकट स्वरुप हैं ये । साधक की दृष्टी जो दृश्य है उस में अदृष्ट को और जो अदृश्य है उसमे दृश्य को देख सकें , यह श्री कृष्ण की अपेक्षा है ।
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