ॐ
गीता की कुछ शब्दावली - १८०
अविभक्तं च भूतेषु विभक्तमिव स्थितम् .. (अध्याय १३ - श्लोक १६)
அவிபக்தம் ச பூதேஷு விபக்தம் இவ ஸ்திதம் .. (அத்யாயம் 13 - ஶ்லோகம் 16)
Avibhaktam Cha Bhooteshu Vibhaktam Iva Sthitam .. (Chapter 13 - Shlokam 16)
अर्थ : अविभक्त (विभाग रहित) होते हुए भी सभी प्राणियों में विभक्त की तरह स्थित हैं श्री परमात्मा ..
मधु (शहद) में माधुर्य , कटहल में माधुर्य , अन्य फलों में माधुर्य , ईख (गन्ना) में माधुर्य , मिश्री खंड में माधुर्य .. अनेकानेक स्थानों में प्राप्त माधुर्य भिन्न भिन्न नहीं । एक ही । सहस्रों पुष्प में मधु प्राप्त है । ये सभी भिन्न भिन्न है ऐसा सोच सम्भव है । परन्तु मिट्टी से सत्त्व वृक्ष पौधों के जड़ों द्वारा खींचा जाता है । ऊपर भेजा जाता है । वही सत्त्व पत्ती , पुष्प , फल के रूप में परिणमित होते हैं । अनेकानेक वर्ण , अनेकानेक रूप , अनेकानेक सुगन्ध युक्त पुष्पों में वह सत्त्व प्रकट होता है । पुष्पों में निर्मित मधु भी मिट्टी से प्राप्त वही सत्त्व का प्रकट स्वरुप है । मधु उपलब्ध स्थानों को देखो तो ऐसा प्रतीत हो सकता है की ये सब भिन्न भिन्न है । परन्तु मूल स्रोत एक है । सत्त्व एक है । मधु का स्वभाव - माधुर्य एक है ।
सूर्य एक है । भूमि पर विविध स्थानों पर प्रकाश के रूप में प्रकट होता है । प्रकट प्रकाश की ओर देखो तो अलग अलग दिख सकते हैं । विभक्त दिख सकते हैं । मूल स्रोत सूर्य की ओर देखो तो अविभक्त एक सूर्य ।
उसी प्रकार , श्री परमात्मा कोटि कोटि जीवों में स्थित है । विभक्त नहीं , एक हैं । पूर्ण है । जीवों में प्रकट होता है । जीव जीव में विराजमान हैं । अलग अलग प्रतीत होते हैं , परन्तु एक , पूर्ण परमात्मन हैं ।
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