ॐ
गीता की कुछ शब्दावली - १९७
उदासीनवत् आसीनः .. (अध्याय १४ - श्लोक २३)
உதாஸீனவத் ஆஸீனஹ ... (அத்யாயம் 14 - ஶ்லோகம் 23)
Udaaseenavat Aaseenah .. (Chapter 14 - Shlokam 23)
अर्थ : ना रुचि .. ना चिन्ता .. उदासीन होकर रहना ..
जीवन के विभिन्न चरणों में हम ने अनेक विषयों में रुचि (उर्दू में जिसे दिलचस्पी कहते हैं ) दर्शाया है । कुछ समय तक रूचि रहती है और काल प्रवाह में लुप्त हो जाती है । बचपन में हमने जिन विषयों में रूचि दिखाई , उन विषयों का स्मरण करें तो हमें अपनी बचपना पर हंसी आती होगी । अल्प , अत्यल्प विषयों में रूचि दर्शाई है । गोली , पतंग , मांजा , कार्टून चित्रों के स्टिकर , प्लास्टिक गाड़ियाँ , .. आदि आदि । रूचि दिखाई , उनका संचय किया , वह खो न जाए इसकी चिन्ता मन में रखी ।
आज आयु बढ़ गयी है । वे सभी रुचियाँ झड़ गयी । इसका अर्थ यह नहीं हुआ की हम "उदासीनवत् आसीनः" हो गए । रूचि के विषय बदल गए हैं । चिन्ता के कारण बदल गये हैं । रूचि दर्शाना या मन में चिन्ता को पाल पोसना समाप्त नहीं हुआ । एकत्रित हुई भीड़ देखा तो कारण जानने की इच्छा , अपने आस पास चल रही वार्ता में रूचि , किसी की अधोगति का समाचार सुनने की इच्छा आदि आदि । जन मानस में किसने क्या कहा यह जानने की जो इच्छा है , वही समाचार पत्र , टी वी चैनल आदि व्यापार का आधार है ।
उदासीन मनो अवस्था का अर्थ निष्क्रियता नहीं । निरपेक्ष सक्रियता । उदात्त चिन्तन को मन में संजो कर सक्रियता । स्वामी विवेकानन्द जैसी सक्रियता ।
यह रूचि छूट जाय , चिन्ता गल जाय । रुचिहीन , चिन्तारहित हो जाय । यही आध्यात्मिक भाव है । जीवन के अनुभवों को पाने के पश्चात , वृद्धावस्था में ही सही , हम उदासीनवत् आसीनः हो जाय यही श्री कृष्ण की अपेक्षा । बालपन में क्रीड़ावस्था , युवावस्था में कुछ कर दिखाने की इच्छा ,मध्य आयु में कामावस्था , वृद्धावस्था में शारीरिक वेदनायें और पीड़ायें .. मनुष्य परिपक्क्व कब होवे ?
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