ॐ
गीता की कुछ शब्दावली - १९८
गुणातीतः स उच्यते .. (अध्याय १४ - श्लोक २५)
குணாதீதஹ ஸ உச்யதே .. (அத்யாயம் 14 - ஶ்லோகம் 25)
Gunaateetah Sa Uchyate .. (Chapter 14 - Shlokam 25)
अर्थ : वह गुणातीत कहा जाता है ।
वह गुणातीत कहा जाता है । गुण - अतीत । गुणों के अतीत । गुणों के पार । ये गुणों की लीला है । संसार में चलने वाले सभी कार्य , संसार में मिलने वाले सभी अनुभव , संसार में हाथ लगने वाली सभी वास्तु , आदि सभी गुणों के कार्य हैं । अतः गुणों से बाधित न होकर , उदासीन रहकर , तटस्थ रहने वाला गुणातीत हो जा । श्री कृष्ण का सुझाव है यह ।
गुणातीत के लक्षण क्या हैं ? वर्णन करते समय श्री कृष्ण पुनः एक वार समत्त्व की बात कह रहे हैं । गुणातीत समत्त्व दर्शाता है । सुख दुःख में समत्त्व ; मिटटी - स्वर्ण में समत्त्व ; प्रिय - अप्रिय में समत्त्व ; निन्दा - स्तुति में समत्त्व ; मान - अपमान में समत्त्व ; मित्र - वैर भावों में समत्त्व । संसारी जीवन में मनुष्यों में समत्त्व , अनुभवों में समत्त्व , इन्द्रिय विषय वस्तुओं में समत्त्व । गुणातीत का प्रमुख लक्षण समत्त्व ।
गुणातीत के लक्षण क्या हैं ? वर्णन करते समय श्री कृष्ण पुनः एक वार समत्त्व की बात कह रहे हैं । गुणातीत समत्त्व दर्शाता है । सुख दुःख में समत्त्व ; मिटटी - स्वर्ण में समत्त्व ; प्रिय - अप्रिय में समत्त्व ; निन्दा - स्तुति में समत्त्व ; मान - अपमान में समत्त्व ; मित्र - वैर भावों में समत्त्व । संसारी जीवन में मनुष्यों में समत्त्व , अनुभवों में समत्त्व , इन्द्रिय विषय वस्तुओं में समत्त्व । गुणातीत का प्रमुख लक्षण समत्त्व ।
दूसरे अध्याय में इन्हीं वृत्ति वाले मनुष्य को स्थित प्राज्ञ कहा । तीसरे और चौथे अध्याय में इसी को योगी कहा । पाँचवे अध्याय में यही पंडित कहा गया । बारहवे अध्याय में यह भक्त , प्रिय भक्त कहा गया । तेरहवे अध्याय में यह क्षेत्रज्ञ कहा गया । यहाँ चौदहवे अध्याय में गुणातीत कहा जा रहा है । आगे सोलहवे अध्याय में इन्हीं वृत्ति दैवी संपत्ति कहे का रहे हैं । ये सभी नाम एक ही मनुष्य को बोधित कर रहे हैं । श्री परमात्मा से ऐक्य इस लक्ष्य को लेकर अन्यान्य मार्गों पर प्रयास करने वाले मनुष्य । अपनी साधना के परिणाम से श्री परमात्मा के निकट पहुँचे हुए मनुष्य । इन सभी मनुष्यों का एक साम्य अवस्था है समत्त्व । इह लौकिक जीवन में समत्त्व । संसारी अनुभवों में , वस्तुओं में , मनुष्यों में समत्त्व । समत्त्व यह अध्यात्म का आधार है ।
समत्त्व याने सम नहीं । सभी स्थानों में , सभी अनुभवों में , सभी प्रकार के मनुष्यों के साथ , सम व्यवहार ना सूचित है , न अपेक्षित है । समत्त्व भाव है । प्राप्त भिक्षा में आधा भाग भीम को और बचा हुआ अन्य चारों में बांटती थी कुन्ती देवी । असम व्यवहार । परन्तु कुन्ती देवी अपने पांचों पुत्रों के प्रति समत्त्व भाव ही रखती थी । सम भाव परन्तु विविध व्यवहार । भाव में समत्त्व परन्तु आवश्यकतानुसार व्यवहार । जूते और भोजन पात्र रखे जाने के स्थान अलग अलग हैं , परन्तु दोनों वस्तुओं के प्रति सम भाव आवश्यक है । गो माता का आलिंगन हो सकता है । उसका गला खुजायी जा सकती है । यही व्यवहार सूअर के साथ नहीं हो सकता । उससे दूर रहना ही योग्य है । व्यवहार में भेद । परन्तु दोनों प्राणियों के प्रति सम भाव हो सकता है । उष्ण में , ग्रीष्म ऋतु में अपने शरीर पर कपडे कम हो जाते हैं । शीत काल में कपडे अधिक होते हैं । ये दोनों काल प्रकृति के खेल हैं । ऐसा समझ आवश्यक है । उनके प्रति भावना में भेद न हो । करेला कड़वा है । शक्करकंद मीठा । भेंडी रुचिहीन । परन्तु रूचि में भेद को प्रकृति में गुणों के परिणाम समझकर प्रिय अप्रिय के जाल में न फंसकर तीनों के प्रति सम भाव हो यही श्री कृष्ण की अपेक्षा है । प्रकृति के भेदों के पार उठें यही गुणातीत का प्रमुख लक्षण ।
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