ॐ
गीता की कुछ शब्दावली - १९९
अव्यभिचारेण भक्ति योगेन .. (अध्याय १४ - श्लोक २६)
அவ்யபிசாரேண பக்தி யோகேன .. (அத்யாயம் 14 - ஶ்லோகம் 26)
Avyabhichaarena BhakthiYogena .. (Chapter 14 - Shlokam 26)
अर्थ : दृढ , अचल भक्ति से ।
अचल भक्ति से .. स्थिर भक्ति से .. इस भक्ति के लिए श्री कृष्ण द्वारा प्रयोग किया गया शब्द "अव्यभिचारी भक्ति" । कठोर शब्द ।
व्यभिचारी (वेश्या) किसी पुरुष के साथ कैसा रिश्ता रखती है ?? वेश्या के मन में उस पुरुष से मिलने वाला धन , उस धन से पूर्ती होने वाली स्वयं की आशा अपेक्षायें ही हैं । उस पुरुष के विषय में कोई चिन्तन के लिए उसके मन में स्थान नहीं । एक और विचार है , वेश्या के मन में । "अरे !! तू नहीं तो और कोई"
भक्ति के नाम लेकर हम श्री भगवान के साथ जो सम्बन्ध बनाते हैं उसे समझें । उसके सन्नधि में जाते हैं । अपने मन में स्वयं की आवश्यकतायें , स्वयं की मांगें , स्वयं की चिंतायें भरी हैं । मन में वह नहीं , उसकी विभूति नहीं , उसकी महानता नहीं । बस । यही विचार है वह हमारी आवश्यकताओं को भेजने की कृपा करेगा । वह हमारे निवेदनों को सुनेगा और उनकी पूर्ती करेगा । वह हमारी चिंतायें मिटाएगा । इन अपेक्षाओं के साथ हम उसके पास जाते हैं । प्रार्थना करते हैं । धमकाते भी हैं । मन की गहराई में यह सोच रखते हुए की "तू नहीं तो और कोई "
भक्ति याने श्रद्धा हो । श्रद्धा की वह है , वह देख रहा है , वह जानता है , उसे यदि लगता हो की आवश्यकता है तो उसकी पूर्ती वही करेगा । पूर्ण श्रद्धा । अटल श्रद्धा । मेरी चिन्तन में सतत रहने वाले की योग और क्षेम को मैं वहन करने का आश्वासन दिया है उसने । सब कुछ छोड़कर मेरे शरण आने वाले के सर्व पापों की निवृत्ति कर मोक्ष दिलाऊंगा , यह सत्य वचन उसने दिया है । संसारी विषयों से निश्चिन्त , श्रद्धा पूर्ण , दृढ़ भक्ति को ही श्री कृष्ण अव्यभिचारी भक्ति कह रहे हैं ।
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