ॐ
गीता की कुछ शब्दावली - २०३
ममैवांशः जीवभूतः जीवलोके .. (अध्याय १५ - श्लोक ७)
மமைவாம்ஶஹ ஜீவபூதஹ ஜீவலோகே .. (அத்யாயம் 15 - ஶ்லோகம் 7)
Mamaivaamshah Jeeva Bhootah Jeevaloke .. (Chapter 15 - Shlokam 7)
अर्थ : लोक में जो जीव हैं , वे सभी मेरे ही अंश हैं ।
सृष्टि और प्रगति के कई अनुमान प्रचलित हैं । एक अनुमान के अनुसार अरबों वर्ष पहले सर्वदूर केवल प्रकाश था । उसी से पंचमहाभूतों की सृष्टि हुई । पंचमहाभूतों के असंख्य मिश्रण से भिन्न भिन्न जीवों की सृष्टि हुई । अन्य एक अनुमान कहता है की आदि में सर्वदूर शून्य आकाश था , जो शब्द से भरा । ओमकार का नाद ही वह शब्द था ऐसी हिन्दू धर्म की धारणा है । उस शब्द से अन्य महाभूतों की सुर उनमे से जीवों की सृष्टि हुई । हिन्दू दृष्टी इन अनुमानों के पार जाती है और सुझाती है की आदि में केवल श्री परमात्मा , अव्यक्त परमात्मा रहे । प्रकाश के रूप में या शब्द के रूप में वे ही व्यक्त हुए । व्यक्त स्वरुप ही बिखरकर कई रूप में सृजित हुई । अतः सब कुछ एक ही पारमात्मा के अंश हैं । प्रकाश था तो प्रकाश के दिव्य अंश , लघु अंश । शब्द था तो शब्द के छोटे अंश । ऊर्जा थी तो ऊर्जा के सूक्ष्मांश । श्री कृष्ण का यही कहना है । सर्व जीव मेरे ही अंश हैं । दैवी अंश हैं नित्य अंश हैं ।
एक अनुमान के अनुसार प्रारम्भ में एक था । उसका विस्तार हुआ और स्फोट हुआ । अनेक में बिखरे हुए वह एक ही सृष्टि में दिखा रहे विविध जीव और लोक हैं । ये अंश कितने बड़े या कितने छोटे हैं ?? अनेक आकाशगंगायें , जो स्वयं अति विराट हैं , उनसे बड़ी इकाई के अंश हैं । प्रत्येक सूर्य कुल आकाशगंगा के अंश हैं । प्रत्येक ग्रह सूर्यकुल के अंश हैं । प्रत्येक जीव ग्रह के अंश हैं । जैवी शरीर में स्थित कोटानुकोटि सेल (अणु) उस शरीर के अंश हैं । उन अणुओं के भीतर जो अनेकानेक सूक्ष्म अंग हैं , वे उस अणु के अंश हैं । उन सूक्ष्म , अति सूक्ष्म अंशों को फोड़ने से उनके भीतर शून्य ही रहने की शक्यता है । महा शून्य से सूक्ष्म शून्य तक । उसका यह अंश है ।
एक यंत्र के सभी अंग उसके अंश हैं । पूर्ण के अंश । अलग उस भाग का कोई अर्थ नहीं । यंत्र से बिछड़ा भाग अर्थ - हीन , जीव - हीन , ऊर्जा - हीन हो जाता है । परन्तु , यंत्र से जुड़ा रहा तो वह भाग पूर्ण यंत्र का अंश हो जाता है । उसी से ऊर्जा पाता है । उस यंत्र के कार्य के अनुरूप कार्य - शील बन जाता है । सजीव हो जाता है । उसी प्रकार हम सभी अलग अलग दिखते हैं । ऐसा प्रतीत होता है की अपने ही ऊर्जा से कार्यरत हैं । ना । हम उस पूर्ण परमात्मा के अंश है । जो भी जीव , स्फूर्ति , ऊर्जा , क्षमता हमें प्राप्त है , उसी से प्राप्त है ।
यह घोषणा ऐसे व्यक्ति के मुख से है जिसने स्वयं को श्री परमात्मा का अंश होने की अनुभूति पायी है , जिसे श्री परमात्मा से ऐक्य की प्रज्ञा है । यह तो ब्रह्म वाक् ही है । स्वयं श्री परमात्मन घोषित कर रहे हैं की सर्व जीव 'मेरे ही अंश हैं' ।
एक अनुमान के अनुसार प्रारम्भ में एक था । उसका विस्तार हुआ और स्फोट हुआ । अनेक में बिखरे हुए वह एक ही सृष्टि में दिखा रहे विविध जीव और लोक हैं । ये अंश कितने बड़े या कितने छोटे हैं ?? अनेक आकाशगंगायें , जो स्वयं अति विराट हैं , उनसे बड़ी इकाई के अंश हैं । प्रत्येक सूर्य कुल आकाशगंगा के अंश हैं । प्रत्येक ग्रह सूर्यकुल के अंश हैं । प्रत्येक जीव ग्रह के अंश हैं । जैवी शरीर में स्थित कोटानुकोटि सेल (अणु) उस शरीर के अंश हैं । उन अणुओं के भीतर जो अनेकानेक सूक्ष्म अंग हैं , वे उस अणु के अंश हैं । उन सूक्ष्म , अति सूक्ष्म अंशों को फोड़ने से उनके भीतर शून्य ही रहने की शक्यता है । महा शून्य से सूक्ष्म शून्य तक । उसका यह अंश है ।
एक यंत्र के सभी अंग उसके अंश हैं । पूर्ण के अंश । अलग उस भाग का कोई अर्थ नहीं । यंत्र से बिछड़ा भाग अर्थ - हीन , जीव - हीन , ऊर्जा - हीन हो जाता है । परन्तु , यंत्र से जुड़ा रहा तो वह भाग पूर्ण यंत्र का अंश हो जाता है । उसी से ऊर्जा पाता है । उस यंत्र के कार्य के अनुरूप कार्य - शील बन जाता है । सजीव हो जाता है । उसी प्रकार हम सभी अलग अलग दिखते हैं । ऐसा प्रतीत होता है की अपने ही ऊर्जा से कार्यरत हैं । ना । हम उस पूर्ण परमात्मा के अंश है । जो भी जीव , स्फूर्ति , ऊर्जा , क्षमता हमें प्राप्त है , उसी से प्राप्त है ।
यह घोषणा ऐसे व्यक्ति के मुख से है जिसने स्वयं को श्री परमात्मा का अंश होने की अनुभूति पायी है , जिसे श्री परमात्मा से ऐक्य की प्रज्ञा है । यह तो ब्रह्म वाक् ही है । स्वयं श्री परमात्मन घोषित कर रहे हैं की सर्व जीव 'मेरे ही अंश हैं' ।
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