ॐ
गीता की कुछ शब्दावली - २०४
मनः षष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति .. (अध्याय १५ - श्लोक ७)
மனஹ ஷஷ்டாநீந்த்ரியாணி ப்ரக்ருதிஸ்தானி கர்ஷதி .. (அத்யாயம் 15 - ஶ்லோகம் 7)
Manah Shashtaaneendriyaani Prakrutisthaani Karshati .. (Chapter 15 - Shlokam 7)
अर्थ : जीव प्रकृति में स्थित पाँच इन्द्रिय और छटा इन्द्रिय मन द्वारा संसार में आकृष्ट हो जाते हैं ।
जीव श्री परमात्मा के ही अंश हैं तो क्या दिव्यता उनकी सहज स्थिति नहीं होनी चाहिए ?? जीव दैवी स्तर से गिरता क्यों है ?? भौतिक संसार में रमता क्यों है ?? श्री कृष्ण कहते हैं की अपने इन्द्रिय और मन प्रकृति में स्थित हैं । संसार के आकर्षणों से आकृष्ट होते हैं और रमते हैं । उसी में तल्लीन होकर अपनी दिव्यता भूल जाते हैं ।
शरीरधारी मनुष्य के पाँच इन्द्रिय हैं । ज्ञानेन्द्र कहे जाने वाले ये पाँच , संसार का ज्ञान , संसार के विषय में जानकारी ले आते हैं । आँखें रंग रूप का ज्ञान के उपकरण हैं । कर्ण शब्द ज्ञान के उपकरण हैं । नासी गन्ध जानने के लिए आवश्यक उपकरण है । जिह्वा रुचियों और त्वचा स्पर्श का बोध दिलाती हैं । इनके अभाव में संसार का ज्ञान प्राप्ति में मनुष्य असमर्थ हो जाता है ।
इन्द्रिय तो केवल उपकरण हैं । इनकी अपनी इच्छा , अनिच्छा नहीं । आँख किसी दृश्य को देखता है , तो उस दृश्य को विना तोड़े मरोड़े , जैसे है वैसे ही बुद्धि की ओर भेज देता है । ना ना । ऐसा कहना भी असत्य होगा । आँख तो केवल द्वार है । बाहर की ओर , संसार की ओर खुलने वाला द्वार । बाहर संसार से आने वाले समाचार को रोकने का सामर्थ्य इस द्वार में नहीं । अन्य चार इन्द्रिय भी ऐसे ही । अतः इन्द्रियों में कोई दोष नहीं ।
मन यह छटा इन्द्रिय है । इन्द्रिय के साथ जब मन जुड़ता है तो समस्या उत्पन्न होते हैं । मन इष्ट अनिष्ट भण्डार है और इन इच्छा अनिच्छाओं को इन्द्रियों के ऊपर थोंपता है । इन्द्रियों को इच्छानुरूप विषयों के ओर भगाता है और उन्हीं विषयों का पुनः पुनः सेवन करने का आग्रह करता है । उसी प्रकार , अनिष्ट विषयों से इन्द्रियों को रोकने का भी प्रयास करता है । इस प्रकार पाँचों इन्द्रिय मन के सहयोग से संसार के आकर्षणों में फंसते हैं । स्थूल शरीर जैसे मन और इन्द्रिय जैसे सूक्ष्म शरीर भी प्रकृतिस्थ या प्रकृति में स्थित हैं तो संसार के विषयों का अनुभव लेना और संसार में रमना अस्वाभाविक नहीं । परन्तु मन और इन्द्रिय से स्वयं का ऐक्य कराने वाला जीव अपनी दिव्यता को भूलकर भौतिक संसार से आकृष्ट हो जाता है और संसार में उलझ जाता है । यही है श्री कृष्ण की व्यथा ।
शरीरधारी मनुष्य के पाँच इन्द्रिय हैं । ज्ञानेन्द्र कहे जाने वाले ये पाँच , संसार का ज्ञान , संसार के विषय में जानकारी ले आते हैं । आँखें रंग रूप का ज्ञान के उपकरण हैं । कर्ण शब्द ज्ञान के उपकरण हैं । नासी गन्ध जानने के लिए आवश्यक उपकरण है । जिह्वा रुचियों और त्वचा स्पर्श का बोध दिलाती हैं । इनके अभाव में संसार का ज्ञान प्राप्ति में मनुष्य असमर्थ हो जाता है ।
इन्द्रिय तो केवल उपकरण हैं । इनकी अपनी इच्छा , अनिच्छा नहीं । आँख किसी दृश्य को देखता है , तो उस दृश्य को विना तोड़े मरोड़े , जैसे है वैसे ही बुद्धि की ओर भेज देता है । ना ना । ऐसा कहना भी असत्य होगा । आँख तो केवल द्वार है । बाहर की ओर , संसार की ओर खुलने वाला द्वार । बाहर संसार से आने वाले समाचार को रोकने का सामर्थ्य इस द्वार में नहीं । अन्य चार इन्द्रिय भी ऐसे ही । अतः इन्द्रियों में कोई दोष नहीं ।
मन यह छटा इन्द्रिय है । इन्द्रिय के साथ जब मन जुड़ता है तो समस्या उत्पन्न होते हैं । मन इष्ट अनिष्ट भण्डार है और इन इच्छा अनिच्छाओं को इन्द्रियों के ऊपर थोंपता है । इन्द्रियों को इच्छानुरूप विषयों के ओर भगाता है और उन्हीं विषयों का पुनः पुनः सेवन करने का आग्रह करता है । उसी प्रकार , अनिष्ट विषयों से इन्द्रियों को रोकने का भी प्रयास करता है । इस प्रकार पाँचों इन्द्रिय मन के सहयोग से संसार के आकर्षणों में फंसते हैं । स्थूल शरीर जैसे मन और इन्द्रिय जैसे सूक्ष्म शरीर भी प्रकृतिस्थ या प्रकृति में स्थित हैं तो संसार के विषयों का अनुभव लेना और संसार में रमना अस्वाभाविक नहीं । परन्तु मन और इन्द्रिय से स्वयं का ऐक्य कराने वाला जीव अपनी दिव्यता को भूलकर भौतिक संसार से आकृष्ट हो जाता है और संसार में उलझ जाता है । यही है श्री कृष्ण की व्यथा ।
Comments
Post a Comment