ॐ
गीता की कुछ शब्दावली - २२५
चिन्तामपरिमेयां .. (अध्याय १६ - श्लोक ११)
சிந்தாமபரிமேயாம் .. (அத்யாயம் 16 - ஶ்லோகம் 11)
Chintaam Aparimeyaam .. (Chapter 16 - Shloka 11)
अर्थ : असीम चिन्ता ।
चिन्ता नाश करती है । संस्कृत में एक वचन है । चिता दहति देहः । चिन्ता दहति चित्तः । चिता देह को जलाती है । चिन्ता चित्त को । आज के नवीन युग में जो विभिन्न रोग उभरे हैं , उनमें अधिकांश चिन्ता के कारण ही उत्पन्न हैं ।
चिन्ता करना स्वभाव का अंग है । "मैं ही कर्ता हूँ । मेरा दायित्त्व है" , यह विचार प्रमुख रूप से चिंता का कारण है । भविष्य को जानने की इच्छा और विशवास की कमी भी चिन्ता के लिये कारणि हैं । ऐसा सामान्य अभिप्राय है की चिन्ता ना करना , "उत्तरदायित्त्व का अभाव है" । इसी लिये कई व्यक्ति यह प्रश्न उठाते हैं की , "अरे !! चिन्ता किये बिना कैसे रहा जा सकता है ??"
चिन्ता हमें वर्त्तमान काल से दूर हटाती है । वर्त्तमान काल से हटते ही मन में आनन्द मिटकर शोक भर जाता है ।
चिन्ता मन में भय को जगाती है । होगा की नहीं , यह चिन्ता है । विपरीत हो गया तो क्या होगा ?? यह भय है । शोक और भय आसुरी सम्पदा हैं ।
चिन्ता करना यदि स्वभाव का अंग बन जाय तो , चिन्ता असीम ही होगी । चिन्ता के लिये समय की सीमा भी नहीं और विषय की सीमा भी नहीं । ऐसा कोई व्यक्ति कहता नहीं की , "बस ! मैं इतना समय तक चिन्ता करूंगा या आज से बस !! इस एक ही विषय की चिन्ता करूंगा ।"
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