ॐ
गीता की कुछ शब्दावली - २२७
आशा पाश शतैर्बद्धाः .. (अध्याय १६ - श्लोक १२)
ஆஶா பாஶ ஶதைர்பத்தாஹ .. (அத்யாயம் 16 - ஶ்லோகம் 12)
Aashaa Paash ShatairBaddhaah .. (Chapter 16 - Shloka 12)
अर्थ : आशा के शत शत पाशों से बंधा हुआ ..
ऐसा कहते हैं की विशवास से ही मनुष्य जीता है । विशवास नहीं तो मनुष्य कार्य में उतरेगा नहीं । परन्तु , यहाँ श्री कृष्ण कह रहे हैं की आशाओं के शत शत पाशों से असुर बंधा है । प्राणी जब रात्रि में भोजन के खोज में निकलते हैं , कोई विशवास को साथ ले नहीं जाते । वह उनका नित्य क्रम है । उसी प्रकार पक्षी सूर्योदय के समय अपने घरोंदे से बाहर पड़ते हैं तो साथ में कोई विशवास बान्ध ले नहीं जाते । बस ! प्रतिदिन के समान उड़कर जाते हैं । उसी दिशा में उड़कर जाते हैं । सायंकाल अपने बच्चों के लिए खाद्य के साथ लौटते हैं । उनके अंदर विशवास नाम का विषय होता तो , "दूसरी दिशा में जाकर देखने की इच्छा" , "अधिक या बड़ा शिकार पाने की आशा" , "नया कुछ , अधिक रुचिकर पाने की आशा" आदि भी विशवास के साथ ही जन्मेंगे । प्राणियों के संसार में ये बातें नहीं हैं ।
कुछ जनों के मन में एक प्रश्न उठता है । "विशवास या आशा नहीं का अर्थ हुआ की अविश्वास या निराशा है" । "निराशा के साथ किसी कार्य में उतरें तो कार्य सफल कैसा होगा ?" इनके समझ में एक त्रुटि है । विशवास है तो वहाँ अविश्वास भी साथ साथ है । "दूसरे ढंग से कार्य करने का विचार हुआ , तो यह अर्थ हुआ की उस पूर्व ढंग पर अविश्वास और इस नए ढंग पर विशवास है । सत्य यह है की विशवास का कोई आधार नहीं । हमारी इच्छाओं का भिन्न स्वरुप है विशवास । यह व्यावहारिक सत्य है की हमारी सभी इच्छायें पूर्ण होती नहीं । किसी इच्छा की पूर्ती होने में अनेक शक्तियों का एक साथ अनुग्रह की आवश्यकता है । केवल स्वयं के नियंत्रण में नहीं है । और मनुष्य को इस सत्य का आभास है । इसीलिये आशा और निराशा एक दूसरे के हाथ धरकर हैं और एक साथ हैं । आशा नहीं तो निराशा नहीं । विशवास नहीं तो अविश्वास भी नहीं । केवल कार्य है । यह कार्य किया जाना चाहिये , बस यह विचार रह जाता है । केवल श्रद्धा , कार्य पर श्रद्धा । उस कार्य को करने की श्रद्धा ।
श्री कृष्ण कह रहे हैं की , "असुर शत शत पाशों से , आशा के पाशों से बंधा है" । आशा हमें पुनः पुनः उन्हीं गलतियों में फंसाती है । पुनः पुनः उन्हीं कर्मों के चक्र में उलझाती हैं । आशा ही हमें खींच ले जाती है । विशवास ही हमें नचाते हैं । यदि हमारे मन में विशवास मिट गए और श्रद्धा खिल गयी तो बस कर्म होंगे । जो किये जाने चाहिए , वे ही कर्म होंगे । संघर्ष , स्पर्धा , ईर्ष्या , दौड़ , अशांति आदि मिट कर चित्त में शान्ति भर जाएगी । हर्ष भर जाएगा ।
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