ॐ
गीता की कुछ शब्दावली - २३०
त्रिविधं नरकस्य द्वारं कामः क्रोधः तथा लोभः .. (अध्याय १६ - श्लोक २१)
த்ரிவிதம் நரகஸ்ய த்வாரம் காமஹ் க்ரோதஹ் ததா லோபஹ் .. (அத்யாயம் 16 - ஶ்லோகம் 21)
Trividham Narakasya Dwaaram Kaamah Krodhah Tathaa Lobhah .. (Chapter 16 - Shloka 21)
अर्थ : काम , क्रोध और लोभ ये तीन प्रकार द्वार हैं नरक के ।
नरक को देखा नहीं । नरक का अनुभव किया है या नहीं , हम जानते नहीं । परन्तु , सभी जानते हैं की नरक यातना पूर्ण है । दुःख मय है ।
श्री कृष्ण के अनुसार काम , क्रोध और लोभ ये तीनों , नरक में प्रवेश देने वाले द्वार हैं । नरक का तात्पर्य कोई स्थान से नहीं । यातना पूर्ण दुःख मय परिणाम से है । काम सुखदायी प्रतीत होता है । सुख होता भी तो क्षणिक ही है । कारण काम करना , (to desire) इच्छा करना वैयक्तिक चेष्टा है । इच्छा की पूर्ती करना , काम को तृप्त करने में अन्य व्यक्तियों की , अन्य व्यवस्थाओं की और प्रकृति की भी आवश्यकता है । कामना अकेला व्यक्ति कर सकता है । उसकी पूर्ती वह स्वयं अकेला कर नहीं सकता । काम पूर्ती के लिए आवश्यक वस्तुएँ , सामग्री , वातावरण , इनकी तैयारी करना , इनको उपलब्ध कराना अन्य कइयों की सहायता से ही हो सकता । इस कारण से काम पूर्ती की अनिश्चितता बढ़ जाती है । दुःख का यह प्रथम कारण ।
काम पूर्ती कतई सम्भव नहीं । काम पूर्ती करने के प्रयास से काम की संतुष्टि होती नहीं । अग्नि में घी डालने से अग्नि का शमन होता नहीं , अपितु अग्नि अधिक भड़कती है । उसी प्रकार काम पूर्ती के प्रयत्नों से काम सन्तुष्ट नहीं , उत्तेजित होता है । काम पूर्ती के विषय सामग्री तो कामाग्नि के लिये भोजन है । दुःख का यह दूसरा कारण है ।
काम आध्यात्मिक नहीं , भौतिक ही है । काम पूर्ती शरीर और इन्द्रियों से ही होती है । शरीर और इन्द्रियों की क्षमता का ऱ्हास होना ही प्राकृतिक है । इनकी काम भोग की क्षमता भी आयु से और अधिक उपयोग से काम होती है । दुःख यह भी कारण है ।
अतः काम का परिणाम दुःख है ।
क्रोध जिस पर रखा जाता है उससे क्रोध को पालने वाले को ही अधिक नष्ट पहुँचाता है । तत्क्षण कोप या गुस्सा भड़कने से जो खून या मारकाट जैसे कर्म हो जाता है तो कोप का शमन होने की शक्यता है । परन्तु क्रोध मन में वर्षानुवर्ष जताया जाता है । प्रतिक्रया में कर्म होता ही नहीं , परन्तु क्रोध जीवित रहता है । अंदर ही अंदर जलाता है । क्रोध पालने वाला मनःशान्ति खो देता है । निद्रा खो देता है । विवेक बुद्धि खो देता है । सर्वनाश ही परिणाम है । अतः क्रोध भी दुःख मय है ।
लोभ विषय वस्तुओं का संग्रह कराता है । हाथ में या हाथ के पहुँच में वस्तु होती है । परन्तु , उसका उपयोग होता नहीं । वस्तु का नष्ट हो जाना या चोरी में खो जाना सम्भव है । यह डर भी सताता है । इस प्रकार लोभ भी दुःख मय है ।
इसे ही श्री कृष्ण "नरक के द्वार" कह रहे हैं । काम , क्रोध और लोभ ये तीन पीड़ा और दुःख में परिणामित होने वाले तीन भावनायें हैं ।
नरक को देखा नहीं । नरक का अनुभव किया है या नहीं , हम जानते नहीं । परन्तु , सभी जानते हैं की नरक यातना पूर्ण है । दुःख मय है ।
श्री कृष्ण के अनुसार काम , क्रोध और लोभ ये तीनों , नरक में प्रवेश देने वाले द्वार हैं । नरक का तात्पर्य कोई स्थान से नहीं । यातना पूर्ण दुःख मय परिणाम से है । काम सुखदायी प्रतीत होता है । सुख होता भी तो क्षणिक ही है । कारण काम करना , (to desire) इच्छा करना वैयक्तिक चेष्टा है । इच्छा की पूर्ती करना , काम को तृप्त करने में अन्य व्यक्तियों की , अन्य व्यवस्थाओं की और प्रकृति की भी आवश्यकता है । कामना अकेला व्यक्ति कर सकता है । उसकी पूर्ती वह स्वयं अकेला कर नहीं सकता । काम पूर्ती के लिए आवश्यक वस्तुएँ , सामग्री , वातावरण , इनकी तैयारी करना , इनको उपलब्ध कराना अन्य कइयों की सहायता से ही हो सकता । इस कारण से काम पूर्ती की अनिश्चितता बढ़ जाती है । दुःख का यह प्रथम कारण ।
काम पूर्ती कतई सम्भव नहीं । काम पूर्ती करने के प्रयास से काम की संतुष्टि होती नहीं । अग्नि में घी डालने से अग्नि का शमन होता नहीं , अपितु अग्नि अधिक भड़कती है । उसी प्रकार काम पूर्ती के प्रयत्नों से काम सन्तुष्ट नहीं , उत्तेजित होता है । काम पूर्ती के विषय सामग्री तो कामाग्नि के लिये भोजन है । दुःख का यह दूसरा कारण है ।
काम आध्यात्मिक नहीं , भौतिक ही है । काम पूर्ती शरीर और इन्द्रियों से ही होती है । शरीर और इन्द्रियों की क्षमता का ऱ्हास होना ही प्राकृतिक है । इनकी काम भोग की क्षमता भी आयु से और अधिक उपयोग से काम होती है । दुःख यह भी कारण है ।
अतः काम का परिणाम दुःख है ।
क्रोध जिस पर रखा जाता है उससे क्रोध को पालने वाले को ही अधिक नष्ट पहुँचाता है । तत्क्षण कोप या गुस्सा भड़कने से जो खून या मारकाट जैसे कर्म हो जाता है तो कोप का शमन होने की शक्यता है । परन्तु क्रोध मन में वर्षानुवर्ष जताया जाता है । प्रतिक्रया में कर्म होता ही नहीं , परन्तु क्रोध जीवित रहता है । अंदर ही अंदर जलाता है । क्रोध पालने वाला मनःशान्ति खो देता है । निद्रा खो देता है । विवेक बुद्धि खो देता है । सर्वनाश ही परिणाम है । अतः क्रोध भी दुःख मय है ।
लोभ विषय वस्तुओं का संग्रह कराता है । हाथ में या हाथ के पहुँच में वस्तु होती है । परन्तु , उसका उपयोग होता नहीं । वस्तु का नष्ट हो जाना या चोरी में खो जाना सम्भव है । यह डर भी सताता है । इस प्रकार लोभ भी दुःख मय है ।
इसे ही श्री कृष्ण "नरक के द्वार" कह रहे हैं । काम , क्रोध और लोभ ये तीन पीड़ा और दुःख में परिणामित होने वाले तीन भावनायें हैं ।
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