ॐ
गीता की कुछ शब्दावली - २२९
ईश्वरोऽहं .. (अध्याय १६ - श्लोक १४)
ஈஶ்வரோ(அ)ஹம் .. (அத்யாயம் 16 - ஶ்லோகம் 14)
Easwaro(a)ham .. (Chapter 16 - Shloka 14)
अर्थ : मैं ही ईश्वर हूँ , यह असुर की धारणा है ।
अपने से उस परमात्मा को अधिक शक्तिशाली मानता था , इसी लिए उस के नाम घोर तपस्या किया और उससे अमरत्त्व का वरदान मांग रखा हिरण्यकशिपु .. वर मिलते ही स्वयं को इतनी शक्तिशाली मानने लगा की परमात्मन का अस्तित्त्व को नकारा और स्वयं को ही ईश्वर घोषणा कर लिया । श्री नारायण का नाम लेनेपर , भजन गाने पर बन्दी लगा दिया । सर्वदूर स्वयं का चित्र और नाम रहे इसकी व्यवस्था किया । इसे ही आसुरी मनो वृत्ति कह रहे हैं श्री कृष्ण ।
यह केवल कोई पुराण की कथा नहीं । आज भी यही कथा दुहराई जा रही है । अपने आस पास इस प्रकार की आसुरी वृत्ति दर्शाने वाले कई उदाहरण हैं । उदाहरण देखने के पूर्व इस शब्द को समझ लें । ऐश्वर्य याने अधिकार या आधिक्य या स्वामित्त्व । ईश्वर याने वह जिसकी चलती है । वह जिसका पूर्ण आधिक्य है । वह जिसकी इच्छानुसार , जिसकी योजनानुसार सब कुछ चलता है । वह जिसकी योजना के विपरीत कुछ नहीं चल सकता । ईश्वर वह जिसके नियमानुसार यह सम्पूर्ण अंड चराचर हिलता है , घूमता है , जीवित रहता है और नष्ट होता है । यदि कोई कहता है कोई ईश्वर वीश्वर नहीं , तो वह स्वयं का विवेक शून्य अज्ञान का प्रदर्शन करता है , सूक्ष्म को ना देख पाने वाली अपनी दोष दृष्टी प्रकट करता है , इन्द्रियों के स्थूल अनुभवों के पार ना उठ पाने की स्वयं की अक्षमता या स्वयं का असामर्थ्य का ढोल पीटता है । कई मनुष्यों में यह कमी पायी जा सकती है । परन्तु , कोई स्वयं को ईश्वर मानने लगता है , तो वह असत्य को धरकर बैठता है । झूठा है । पाखंडी है ।
क्या हमें स्वयं के शरीर पर ऐश्वर्य है ? स्वामित्त्व है ? क्या हमारा शरीर अपनी इच्छानुसार व्यवहार करता है ? योगासन करते समय शरीर को एक स्थिति में अवश्य बैठा पाते हैं । परन्तु क्या अपने पाचन क्रिया , श्वसन क्रिया , ह्रदय का धड़कन , रक्त संचार आदि अपने नियंत्रण से ही कार्य करते हैं ? ये व्यवस्थाएं अपने अपने कार्य करते हैं , कभी बिगड़ते हैं । तुम्हें कौन पूंछता है ? क्या शरीर में उत्पन्न रोगों पर अपना स्वामित्त्व है ? क्या शरीर का जर्जर होना , वृद्धावस्था को पाना , शरीर की मृत्यु आदि पर अपना ऐश्वर्य है ? ये तो बस आते हैं । किसी क्षण आते हैं । आपकी अनुमति पूंछे बिना आते हैं । फिर आप कौनसे ईश्वर हुए ?
ये तो शरीर के विषय हुए , जो अपना अति निकट है । हम से बाहर जो है , हमारे बंधू जन , हमारी पत्नी , हमारे बच्चे , हमारे पडोसी , वायु , सूर्य का तेज , तापमान , वर्षा , भूकम्प , अन्य नैसर्गिक उतार चढ़ाव , आदि कितने ही विषय हैं , जिनपर हमारा लवलेश भी नियंत्रण नहीं । इन सभी कार्यों में अपनी अनुमति या नियंत्रण तो दूर , अपना अस्तित्त्व की भी परवाह नहीं । ये तो चलते हैं अन्य किसी शक्ति के नियमानुसार । अन्य किसी शक्ति की आज्ञा लेकर ।
तो किस आधार पर कहता है की "ईश्वरोऽहं" 'मैं ही ईश्वर हूँ' ? बस ! कहता है । यही आसुरी है ।
आज के राजनीतज्ञ इस के प्रखर उदाहरण हैं । हथेली नमस्कार स्थिति में बांधकर , नम्र निवेदन करते हुए , वृद्धों के पैर छूते हुए , अन्यों को फुंसलाते हुए चुनाव लडता है । क्यों की वह जानता है की प्रजातंत्र में जनता शक्तिशाली है । एक बार वर मिल जाये (पदवी मिल जाय) तो वह हिरण्यकशिपु का अवतार ले लेता है । मानने लगता है की "मैं ही सर्वोपरि हूँ , मैं ही ईश्वर हूँ , यह जनता क्या जानती है ?" "अरे ! पांच वर्षों बाद पुनः चुनाव आयेगा और इस जनता के पास पुनः हाथ बांधकर जाना होगा ??" "ठीक है ! पांच वर्ष बाद देखा जाएगा ।"
विद्यार्थी पढ़ता है । अच्छे मार्क के लिए प्रार्थना करता है । आस पास के कई व्यक्तियों का उपयोग कर लेता है । व्यवस्थाओं का लाभ उठाता है । बड़ी उपाधियाँ प्राप्त कर लेने के पश्चात उसमें हिरण्यकशिपु अवतरित हो जाता है । "ये तो मेरी उपाधियाँ हैं । मेरी बुद्धि , मेरा अथक परिश्रम का परिणाम । क्या माँ बाप ? क्या गांव ? क्या देश ?" कहते हुए अपनी उपाधियाँ बेचने और बदले में नौकरी पाने उड़ जाता है ।
ईश्वरोऽहं मैं ईश्वर हूँ , यह कहना है असुर का । यह धारणा है असुर का ।
यह केवल कोई पुराण की कथा नहीं । आज भी यही कथा दुहराई जा रही है । अपने आस पास इस प्रकार की आसुरी वृत्ति दर्शाने वाले कई उदाहरण हैं । उदाहरण देखने के पूर्व इस शब्द को समझ लें । ऐश्वर्य याने अधिकार या आधिक्य या स्वामित्त्व । ईश्वर याने वह जिसकी चलती है । वह जिसका पूर्ण आधिक्य है । वह जिसकी इच्छानुसार , जिसकी योजनानुसार सब कुछ चलता है । वह जिसकी योजना के विपरीत कुछ नहीं चल सकता । ईश्वर वह जिसके नियमानुसार यह सम्पूर्ण अंड चराचर हिलता है , घूमता है , जीवित रहता है और नष्ट होता है । यदि कोई कहता है कोई ईश्वर वीश्वर नहीं , तो वह स्वयं का विवेक शून्य अज्ञान का प्रदर्शन करता है , सूक्ष्म को ना देख पाने वाली अपनी दोष दृष्टी प्रकट करता है , इन्द्रियों के स्थूल अनुभवों के पार ना उठ पाने की स्वयं की अक्षमता या स्वयं का असामर्थ्य का ढोल पीटता है । कई मनुष्यों में यह कमी पायी जा सकती है । परन्तु , कोई स्वयं को ईश्वर मानने लगता है , तो वह असत्य को धरकर बैठता है । झूठा है । पाखंडी है ।
क्या हमें स्वयं के शरीर पर ऐश्वर्य है ? स्वामित्त्व है ? क्या हमारा शरीर अपनी इच्छानुसार व्यवहार करता है ? योगासन करते समय शरीर को एक स्थिति में अवश्य बैठा पाते हैं । परन्तु क्या अपने पाचन क्रिया , श्वसन क्रिया , ह्रदय का धड़कन , रक्त संचार आदि अपने नियंत्रण से ही कार्य करते हैं ? ये व्यवस्थाएं अपने अपने कार्य करते हैं , कभी बिगड़ते हैं । तुम्हें कौन पूंछता है ? क्या शरीर में उत्पन्न रोगों पर अपना स्वामित्त्व है ? क्या शरीर का जर्जर होना , वृद्धावस्था को पाना , शरीर की मृत्यु आदि पर अपना ऐश्वर्य है ? ये तो बस आते हैं । किसी क्षण आते हैं । आपकी अनुमति पूंछे बिना आते हैं । फिर आप कौनसे ईश्वर हुए ?
ये तो शरीर के विषय हुए , जो अपना अति निकट है । हम से बाहर जो है , हमारे बंधू जन , हमारी पत्नी , हमारे बच्चे , हमारे पडोसी , वायु , सूर्य का तेज , तापमान , वर्षा , भूकम्प , अन्य नैसर्गिक उतार चढ़ाव , आदि कितने ही विषय हैं , जिनपर हमारा लवलेश भी नियंत्रण नहीं । इन सभी कार्यों में अपनी अनुमति या नियंत्रण तो दूर , अपना अस्तित्त्व की भी परवाह नहीं । ये तो चलते हैं अन्य किसी शक्ति के नियमानुसार । अन्य किसी शक्ति की आज्ञा लेकर ।
तो किस आधार पर कहता है की "ईश्वरोऽहं" 'मैं ही ईश्वर हूँ' ? बस ! कहता है । यही आसुरी है ।
आज के राजनीतज्ञ इस के प्रखर उदाहरण हैं । हथेली नमस्कार स्थिति में बांधकर , नम्र निवेदन करते हुए , वृद्धों के पैर छूते हुए , अन्यों को फुंसलाते हुए चुनाव लडता है । क्यों की वह जानता है की प्रजातंत्र में जनता शक्तिशाली है । एक बार वर मिल जाये (पदवी मिल जाय) तो वह हिरण्यकशिपु का अवतार ले लेता है । मानने लगता है की "मैं ही सर्वोपरि हूँ , मैं ही ईश्वर हूँ , यह जनता क्या जानती है ?" "अरे ! पांच वर्षों बाद पुनः चुनाव आयेगा और इस जनता के पास पुनः हाथ बांधकर जाना होगा ??" "ठीक है ! पांच वर्ष बाद देखा जाएगा ।"
विद्यार्थी पढ़ता है । अच्छे मार्क के लिए प्रार्थना करता है । आस पास के कई व्यक्तियों का उपयोग कर लेता है । व्यवस्थाओं का लाभ उठाता है । बड़ी उपाधियाँ प्राप्त कर लेने के पश्चात उसमें हिरण्यकशिपु अवतरित हो जाता है । "ये तो मेरी उपाधियाँ हैं । मेरी बुद्धि , मेरा अथक परिश्रम का परिणाम । क्या माँ बाप ? क्या गांव ? क्या देश ?" कहते हुए अपनी उपाधियाँ बेचने और बदले में नौकरी पाने उड़ जाता है ।
ईश्वरोऽहं मैं ईश्वर हूँ , यह कहना है असुर का । यह धारणा है असुर का ।
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