ॐ
गीता की कुछ शब्दावली - २४०
तं यज्ञं राजसम् .. (अध्याय १७ - श्लोक १२)
தம் யக்ஞம் ராஜஸம் .. (அத்யாயம் 17 - ஶ்லோகம் 12)
Tham Yagyam Raajasam .. (Chapter 17 - Shlokam 12)
अर्थ : वह यज्ञ राजसी है ।
राजस प्रधान व्यक्ति द्वारा किया जाने वाला यज्ञ कैसा होगा ?? राजो गुण द्वारा उत्तेजित वृत्तियाँ कैसी रहेंगी ??
श्री कृष्ण यहाँ दो वृत्तियों का उल्लेख कर रहे हैं । प्रथम .. फल के अपेक्षा । फल प्राप्ति राजसी के लिए यज्ञ करने की प्रेरणा । फल मिलने की संभावना ना हो तो यज्ञ होगा नहीं । द्वितीय ... दम्भ .. स्व का प्रदर्शन .. आत्म स्तुति के वातावरण में यज्ञ किया जाता है ।
बड़े बड़े पोस्टर , नभ स्पर्शी फ्लेक्स बैनर अपने चित्र , अपनी प्रशंसा के साथ । यज्ञ की हेतु से बड़ा यज्ञ करने वाले का नाम और चित्र होते हैं । राजसी का मैं तो सदैव फुगा हुआ ही होता है । हेतु प्रधान होना हो तो 'मैं' को हटना होगा । 'मैं' बढ़ चढ़कर रहा तो वही दम्भ है ।
यज्ञ यह त्याग है । इदं न मम ... यह मेरा नहीं , यह तेरा है ... यही यज्ञ की भावना है । इस भाव को जगाना ही यज्ञ की हेतु है । परन्तु , धन की प्राप्ति के लिये , पद की प्राप्ति के लिए , पुत्र की प्राप्ति के लिये , शत्रु के नाश के लिये यज्ञ करेगा राजसी ।
ये प्रवृत्तियों में भेद उंच - नीच या श्रेष्ट - निम्न के भेद नहीं । ये स्वभाव के प्रकार हैं । गुण इन वृत्तियों के लिए कारण है । संसार में ये भेद अनिवार्य हैं । ये टाले जाना असम्भव है । ये तो रहेंगे ही ।
श्री कृष्ण यहाँ दो वृत्तियों का उल्लेख कर रहे हैं । प्रथम .. फल के अपेक्षा । फल प्राप्ति राजसी के लिए यज्ञ करने की प्रेरणा । फल मिलने की संभावना ना हो तो यज्ञ होगा नहीं । द्वितीय ... दम्भ .. स्व का प्रदर्शन .. आत्म स्तुति के वातावरण में यज्ञ किया जाता है ।
बड़े बड़े पोस्टर , नभ स्पर्शी फ्लेक्स बैनर अपने चित्र , अपनी प्रशंसा के साथ । यज्ञ की हेतु से बड़ा यज्ञ करने वाले का नाम और चित्र होते हैं । राजसी का मैं तो सदैव फुगा हुआ ही होता है । हेतु प्रधान होना हो तो 'मैं' को हटना होगा । 'मैं' बढ़ चढ़कर रहा तो वही दम्भ है ।
यज्ञ यह त्याग है । इदं न मम ... यह मेरा नहीं , यह तेरा है ... यही यज्ञ की भावना है । इस भाव को जगाना ही यज्ञ की हेतु है । परन्तु , धन की प्राप्ति के लिये , पद की प्राप्ति के लिए , पुत्र की प्राप्ति के लिये , शत्रु के नाश के लिये यज्ञ करेगा राजसी ।
ये प्रवृत्तियों में भेद उंच - नीच या श्रेष्ट - निम्न के भेद नहीं । ये स्वभाव के प्रकार हैं । गुण इन वृत्तियों के लिए कारण है । संसार में ये भेद अनिवार्य हैं । ये टाले जाना असम्भव है । ये तो रहेंगे ही ।
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