ॐ
गीता की कुछ शब्दावली - २४१
तं यज्ञं तामसम् .. (अध्याय १७ - श्लोक १३)
தம் யக்ஞம் தாமஸம் .. (அத்யாயம் 17 - ஶ்லோகம் 13)
Tham Yagyam Taamasam .. (Chapter 17 - Shlokam 13)
अर्थ : वह यज्ञ तामसी है ।
तमस या तमो गुण का प्रखर स्वरुप अज्ञान है । तामसी प्रमुखतः अज्ञान का प्रदर्शन करता है ।
तमो गुणी के सभी कर्मों में सामान्यतः कुछ विशेषतायें झलकते हैं । अतः उसके द्वारा कराये जाने वाला यज्ञ में भी वे ही विशेषतायें झलकते हैं । श्री कृष्ण पाँच ऐसी विशेषताओं की चर्चा यहाँ कर रहे हैं ।
विधि हीनम् .. विधियों के विना , नियमों के पालन विना यज्ञ .. तामसी का लक्षण है अज्ञान । अतः ना वह विधियाँ जानता है , ना ही उसमे विधियों को जानने की इच्छा है । और विधियों का महत्त्व भी वह समझता नहीं । इसीलिए , यदि किसी ने इस ओर उसका ध्यान आकर्षित करने का प्रयत्न करें , तो वह ऐसे सुझाओं का दुर्लक्ष्य ही करता है । वह जब कोई यज्ञ का आयोजन करता है , ना शास्त्रों के निर्देश अनुसार करता है और ना ही शास्त्रियों के मार्गदर्शन में करता है ।
असृष्टान्नम् .. अन्नदान के विना । अपने सभी कर्मों में अन्नदान अनिवार्य है । कम से कम , प्रसाद वितरण तो होता ही है । तामसी का अन्य एक लक्षण है आलस्य । उसका आलस्य उसे इन बातों से रोकता है और वह विना अन्नदान यज्ञ करता है ।
मंत्र हीनम् .. उचित मंत्रोच्चार के विना तामसी के यज्ञ संपन्न होते हैं । आलस्य और अज्ञान के कारण यज्ञ आयोजन में सही व्यक्तियों का सहभाग लेता नहीं । व्यक्ति जो यज्ञ में अपेक्षायें , पद्धति और सामग्री आदि कम अधिक हो तो भी चला लेता है , यज्ञ आयोजन में तामसी ऐसे व्यक्तियों को लगाता है । वैसे ही अधूरा मन्त्र ज्ञान प्राप्त व्यक्ति से यज्ञ कराता है ।
अदक्षिणम् ... युक्त दक्षिणा देने की इच्छा होती नहीं । तामसी का एक और लक्षण है हठ । सही व्यक्तियों को उनकी योग्यता को परखने में उसका हठ ही बाधक है । मंत्रों को जानने वाले व्यक्ति , यज्ञ विधियों को जानने वाले व्यक्ति , यज्ञ आयोजन में अनुभवी व्यक्ति के अपेक्षा अधूरा ज्ञान , कम अनुभव वाले व्यक्ति को लगाता है । उसे भी उचित दक्षिणा न देकर सौदे बाजी करता है ।
श्रद्धा विरहितम् ... यज्ञ का आधार , यज्ञ ही नहीं , किसी भी धार्मिक कर्म का आधार श्रद्धा है । तामसी में श्रद्धा होती नहीं । बस ! यज्ञ करना है और सम्पन्न हो जाना है । न उस में श्रद्धा है , न यज्ञ का स्पष्ट हेतु और ना उस में लगन ।
तमस या तमो गुण का प्रखर स्वरुप अज्ञान है । तामसी प्रमुखतः अज्ञान का प्रदर्शन करता है ।
तमो गुणी के सभी कर्मों में सामान्यतः कुछ विशेषतायें झलकते हैं । अतः उसके द्वारा कराये जाने वाला यज्ञ में भी वे ही विशेषतायें झलकते हैं । श्री कृष्ण पाँच ऐसी विशेषताओं की चर्चा यहाँ कर रहे हैं ।
विधि हीनम् .. विधियों के विना , नियमों के पालन विना यज्ञ .. तामसी का लक्षण है अज्ञान । अतः ना वह विधियाँ जानता है , ना ही उसमे विधियों को जानने की इच्छा है । और विधियों का महत्त्व भी वह समझता नहीं । इसीलिए , यदि किसी ने इस ओर उसका ध्यान आकर्षित करने का प्रयत्न करें , तो वह ऐसे सुझाओं का दुर्लक्ष्य ही करता है । वह जब कोई यज्ञ का आयोजन करता है , ना शास्त्रों के निर्देश अनुसार करता है और ना ही शास्त्रियों के मार्गदर्शन में करता है ।
असृष्टान्नम् .. अन्नदान के विना । अपने सभी कर्मों में अन्नदान अनिवार्य है । कम से कम , प्रसाद वितरण तो होता ही है । तामसी का अन्य एक लक्षण है आलस्य । उसका आलस्य उसे इन बातों से रोकता है और वह विना अन्नदान यज्ञ करता है ।
मंत्र हीनम् .. उचित मंत्रोच्चार के विना तामसी के यज्ञ संपन्न होते हैं । आलस्य और अज्ञान के कारण यज्ञ आयोजन में सही व्यक्तियों का सहभाग लेता नहीं । व्यक्ति जो यज्ञ में अपेक्षायें , पद्धति और सामग्री आदि कम अधिक हो तो भी चला लेता है , यज्ञ आयोजन में तामसी ऐसे व्यक्तियों को लगाता है । वैसे ही अधूरा मन्त्र ज्ञान प्राप्त व्यक्ति से यज्ञ कराता है ।
अदक्षिणम् ... युक्त दक्षिणा देने की इच्छा होती नहीं । तामसी का एक और लक्षण है हठ । सही व्यक्तियों को उनकी योग्यता को परखने में उसका हठ ही बाधक है । मंत्रों को जानने वाले व्यक्ति , यज्ञ विधियों को जानने वाले व्यक्ति , यज्ञ आयोजन में अनुभवी व्यक्ति के अपेक्षा अधूरा ज्ञान , कम अनुभव वाले व्यक्ति को लगाता है । उसे भी उचित दक्षिणा न देकर सौदे बाजी करता है ।
श्रद्धा विरहितम् ... यज्ञ का आधार , यज्ञ ही नहीं , किसी भी धार्मिक कर्म का आधार श्रद्धा है । तामसी में श्रद्धा होती नहीं । बस ! यज्ञ करना है और सम्पन्न हो जाना है । न उस में श्रद्धा है , न यज्ञ का स्पष्ट हेतु और ना उस में लगन ।
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