ॐ
गीता की कुछ शब्दावली - २४५
तपः सात्त्विकम् .. (अध्याय १७ - श्लोक १८)
தபஹ ஸாத்விகம் .. (அத்யாயம் 17 - ஶ்லோகம் 18)
Tapah Saattvikam .. (Chapter 17 - Shlokam 18)
अर्थ : यह सात्त्विकी तप है ।
श्रद्धा के साथ ... एवं फल की अपेक्षा के विना ... ये सात्त्विक व्यक्ति के प्रधान लक्षण हैं । उसके सर्व कर्मों में ये प्रकट होते हैं । श्रद्धा वह मनः की धारणा है जिसमे लव लेश भी सन्देह होता नहीं । सात्त्विक व्यक्ति श्रद्धा के साथ किसी भी कार्य करता है ।
फल की अपेक्षा लिए विना ... फल के प्रति निश्चिन्त रहकर कार्य में लगना ... यह सात्त्विक व्यक्ति का लक्षण है । यह कार्य करणीय है , यह कार्य किया जाना उचित है ... बस ! यह एक ही विचार सात्त्विक व्यक्ति को किसी कार्य करने प्रेरित करता है ।
सात्त्विक व्यक्ति के द्वारा किया जाने वाला तप भी इन्ही लक्षणों को प्रकट करते हैं । श्रद्धा के साथ किया जाता है । फल की ओर निरपेक्ष रहकर किया जाता है ।
श्रद्धा के साथ ... एवं फल की अपेक्षा के विना ... ये सात्त्विक व्यक्ति के प्रधान लक्षण हैं । उसके सर्व कर्मों में ये प्रकट होते हैं । श्रद्धा वह मनः की धारणा है जिसमे लव लेश भी सन्देह होता नहीं । सात्त्विक व्यक्ति श्रद्धा के साथ किसी भी कार्य करता है ।
फल की अपेक्षा लिए विना ... फल के प्रति निश्चिन्त रहकर कार्य में लगना ... यह सात्त्विक व्यक्ति का लक्षण है । यह कार्य करणीय है , यह कार्य किया जाना उचित है ... बस ! यह एक ही विचार सात्त्विक व्यक्ति को किसी कार्य करने प्रेरित करता है ।
सात्त्विक व्यक्ति के द्वारा किया जाने वाला तप भी इन्ही लक्षणों को प्रकट करते हैं । श्रद्धा के साथ किया जाता है । फल की ओर निरपेक्ष रहकर किया जाता है ।
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