ॐ
गीता की कुछ शब्दावली - २३७
आहारा राजसस्येष्टा .. (अध्याय १७ - श्लोक ८)
ஆஹாரா ராஜஸஸ்யேஷ்டா .. (அத்யாயம் 17 - ஶ்லோகம் 9)
Aahaaraa Raajasasyeshtaa .. (Chapter 17 - Shlokam 9)
अर्थ : राजसी के लिए को इस प्रकार का आहार इष्ट है ।
राजसी के लिए प्रिय आहार की चर्चा करते समय , श्री कृष्ण भोजन के प्रकार का नहीं , पक्वान्न के विविध प्रकार की नहीं , रुचियों की चर्चा कर रहे हैं । इस प्रकार के आहार के परिणामों की चर्चा कर रहे हैं ।
श्री कृष्ण के अनुसार कटु या कड़वा आहार , खट्टा आहार (कटवम्ल) .. खारा या नमकीन आहार , अति गरम आहार (लवणात्युष्ण) ... तीखा आहार , रूखा सूखा भुंजा हुआ या नीर रहित तला हुआ आहार जिनसे मुख सुख जाता है और दाह उत्पन्न होता है (तीक्ष्ण रुक्ष विदाहिनः) ... ऐसे सभी आहार राजसी को प्रिय है ।
राजसी सदैव हड़बड़ाहट में रहता है । सतत कार्यों में मग्न रहने की इच्छा रखने वाला है । बढ़ा चढ़ाया हुआ , प्रचंड आकार में फुगाया गया मैं के साथ विचरने वाला है । भोजन करना भी उसके लिए हड़बड़ाहट युक्त कार्य है । मित रुचियाँ उसे भाते नहीं । अतीव रुचियाँ ही उसे प्रिय हैं । अत्यधिक कड़वा , खट्टा , खारा और तीखा भोजन उसे पसन्द है । राजसी गरम खाता है । तले हुए भोजन , भूँजे हुए आहार जिनके कारण शरीर सुखकर जल हीन होता है और प्यास छेड़ा जाता है , उसे अत्यधिक इष्ट है । एक ओर शरीर भर पसीना छूटे , दूसरी ओर 'स् स् हो हो' की गर्जना , एक ओर सूखे मुख के लिए पानी का सेवन , एक ओर जिह्वा और अन्न नली में जलन , फिर भी अतीव रुचियाँ वाले आहार खाये जाता है । यही रजो गुनी के लक्षण हैं । भोजन करके थक जाता है ।
रुचियों के साथ साथ श्री कृष्ण इन आहारों के परिणामों का भी उल्लेख कर रहे हैं । इन रुचियों के आहार को ''दुःख शोकामय प्रदा'' कह रहे हैं दुःख याने कष्ट या वेदना । आमय याने रोग । इन रुचियाँ युक्त आहार शरीर में रोग और परिणामतः शरीर में कष्ट और मन में शोक उत्पन्न करते हैं । आज अधिकतर रोग , अल्सर , ह्रदय विकार , शर्करा , किडनी अक्षम होना , निद्रा का अभाव आदि रोगों से पीड़ित रोगियों के लिए इन प्रकार के तीव्र रुचियाँ वाले आहार मना किये जाते हैं । अतीव रुचियाँ नहीं मित रूचि वाले , तले हुए नहीं वाफ में पकाये गए , आहार ही सुझाये जा रहे हैं । ये ही शारीरिक आरोग्य के लिए हितकारी माने जा रहे हैं ।
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