ॐ
गीता की कुछ शब्दावली - २४४
तपः मानसम् .. (अध्याय १७ - श्लोक १६)
தபஹ மானஸம் .. (அத்யாயம் 17 - ஶ்லோகம் 16)
Tapah Maanasam .. (Chapter 17 - Shlokam 16)
अर्थ : यह मनस का तप है ।
मन से होने वाला तप की चर्चा करते हुए श्री कृष्ण , "(१) मनः प्रसादः , (२) सौम्यत्वं , (३) मौनं , (४) आत्म विनिग्रहः , (५) भाव संशुद्धि ऐसे पांच लक्षणों का उल्लेख कर रहे हैं ।
(१) मनः प्रसादः .. प्रसाद याने आनन्द या सन्तोष । तोष याने तृप्ति । संतोष याने पूर्ण तृप्ति । संतोष का अर्थ आनन्द भी । मन में तृप्ति हो तो ही आनन्द होता है । मन में यदि अतृप्ति हो तो आनन्द हो ही नहीं सकता । उलटा दुःख ही होगा । अतृप्त या असंतुष्ट अवस्था में संसार के विषयों के पीछे भागने वाला मनस शांति खो देता है । तृप्त मन शान्त रहता है । आनन्दित रहता है । मन की संतुष्टि , मन में पूर्ण तृप्ति ही मनः प्रसादः है ।
(२) सौम्यत्वं .. सौम्यत्व या सौंदर्य । मन में स्थित सद्भावनायें मन को सुन्दर बनाता है । सौम्य बनाता है । हिंसा , क्रूरता , वक्रता , द्वेष , असह्यता , अधीर आदि भावनायें मन की सुन्दरता को सौम्यता को मिटाते हैं । दया , करुणा , अहिंसा , सरलता , सहन शक्ति , धैर्य आदि भावना मन को सौम्य या सुन्दर बनाते हैं ।
(३) मौनम .. मौन याने निश्चल मन । अनुकूल - प्रतिकूल , मिलना - बिछड़ना , लाभ - नष्ट , राग - द्वेष , सुख - दुःख , आदि द्वैत अनुभवों में मन यदि बाधित नहीं होता , मन में यदि लहरें उठते नहीं , तो वह मौन है । मौन अवस्था को स्थिर करने मन को उदात्त विचार से भरना होगा ।
(४) आत्म विनिग्रहः .. आत्म विनिग्रहः या नियंत्रित मन .. मन को स्वेच्छा से विषयों के पीछे , विषय सुख के पीछे भागने से रोककर , अपने नियंत्रण में रखें और हम जहाँ चाहे वहाँ लगाना ही आत्म विनिग्रहः है ।
(५) भाव संशुद्धि .. भाव संशुद्धि यह मन की स्वछता और पवित्रता । स्वच्छ निर्मल चिन्तन भाव संशुद्धि को जगाते हैं । मन में स्वार्थ और आत्म स्तुति के अभाव में मन शुद्ध होता है ।
ये सभी मन से होने वाला तप है ।
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