ॐ
गीता की कुछ शब्दावली - २४६
तपः राजसम् .. (अध्याय १७ - श्लोक १८)
தபஹ ராஜஸம் .. (அத்யாயம் 17 - ஶ்லோகம் 18)
Tapah Raajasam .. (Chapter 17 - Shlokam 18)
अर्थ : यह राजसी का तप है ।
राजसी दम्भ के साथ , आडम्बर के साथ , बड़ी धूम धाम से तप करता है । मान , मर्यादा , प्रशंसा के प्राप्ति की हेतु से किया जाता है । राजसी को अपने किसी भी चेष्टा में फल की अपेक्षा होती है । उसका तपस दम्भ-पूर्ण तो रहेगा ही । उससे आगे राजसी तप के विधि पर और उससे सहज प्राप्त होने वाले अपूर्व सिद्धियों की ओर ध्यान न देकर , तपश्चर्या से असम्बद्ध व्यक्तियों की पुष्प वृष्टि , तप इस विषय से अनभिज्ञ व्यक्तियों की तालियाँ , तप के विषय में बोलने की योग्यता जिनको नहीं उनकी प्रशंसा आदि के प्राप्ति को महत्त्व पूर्ण समझता है राजसी और इसी हेतु से वह तपश्चर्या में लगता है । श्री कृष्ण का यही कहना है ।
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