ॐ
गीता की कुछ शब्दावली - २५१
ॐ तत् सत् ... (अध्याय १७ - श्लोक २३)
ஓம் தத் ஸத் ... (அத்யாயம் 17 - ஶ்லோகம் 23)
Om Tat Sat ... (Chapter 17 - Shloka 23)
अर्थ : ॐ तत् सत् ... श्री परब्रह्म परमात्मा का शब्द स्वरुप ...
ॐ यह प्रणव मन्त्र है । एकाक्षर मन्त्र है । "मुझे प्रणव मन्त्र ॐ में देख सकोगे" , कहते हैं श्री कृष्ण । "गिरामस्मि एकमक्षरं" याने "मंत्रों में मैं एकाक्षर हूँ" । ॐ यह परमात्मा का शब्द स्वरुप है । निर्गुण , निराकार परमात्मन का शब्द स्वरुप । ध्यान के लिए उपयुक्त साधन है ओंकार ।
एक अन्य सन्दर्भ में श्री कृष्ण कहते हैं की , "ॐ इस मन्त्र का ध्यान करते हुए जो इस संसार को छोड़ता है , वह मुझे , मेरे परम धाम को प्राप्त करता है" । ॐ का उच्चार अपने बुद्धि पर सूक्ष्म प्रभाव छोड़ता है । श्वासादि प्रणाली में उठे कठिनाई दूर करता है । ॐ का उच्चार मन को शान्त करता है ।
ॐ त्र्यक्षर मन्त्र है । अ , उ और म ये तीन अक्षरों का संयोग है यह शब्द । इसके उच्चार में अपने सम्पूर्ण शब्द परणाली का उपयोग है । अ यह शब्द नाभि से निकलता है , उ कंठ से और म होठों से ।
धार्मिक कार्य , वैदिक कार्य ॐ इस मन्त्र के उच्चार से प्रारम्भ किये जाते हैं । वेदों का बीज है ॐ । वेदों का सार है ॐ । ॐ यह तीन अक्षरों का संयोग है , त्र्यक्षरी है । गायत्री यह त्रिपदी है । गायत्री का स्रोत है ॐ । गायत्री यह वेदों का सार है । अतः ॐ यह मन्त्र वेदों का बीज कहा गया है ।
सभा के समक्ष रखा जाने वाला प्रस्ताव को अनुमोदित करने अंग्रेज 'aye' शब्द का उच्चार करते हैं । अपनी परम्परा में ॐ के उच्चार से सभा प्रस्ताव पारित करती है । किसी की प्रशंसा के लिये भी ॐ का उच्चार किया जाता है ।
सिख एक ओमकार कहते हैं । जैनों के महावाक्यों में ॐ निहित है । बौद्ध सम्प्रदाय में भी ॐ प्रचलित है । अतः ॐ वैश्विक मन्त्र है ।
तत् याने वह । यह संसार इदं है । श्री परमात्मन तत् । तत् उसके स्मरण में उच्चारा जाता है । तत् का उच्चार स्व का ऐक्य उस के साथ कराने किया जाता है । इस सृष्टि में कण कण उसी का है । यह शरीर , इन्द्रिय , मन , बुद्धि सभी उसीका है । उपकरणों द्वारा कई कर्म किये जाते हैं । करण भी वही । कर्म भी वही । तदर्थीयं , उसके लिए किया जाना । यज्ञ , दान , तप , जप , ध्यान आदि कर्म उसी के लिये किया जाए यही उचित है । तत् का उच्चार और उसके लिये कर्म ।
सत् यह सत्य है । एकमेव सत्य । अस्तित्त्व है । उसी का अस्तित्त्व है । अन्य सभी मिथ्या है । आभास होता है की हैं परन्तु नहीं हैं । हैं तो भी नित्य परिवर्तनशील हैं और नाश की और प्रवास में हैं । वह एक ही है जो है । यज्ञ , दान , तप , जप , ध्यान आदि कर्म उसी का प्रकट स्वरुप है । उसी के लिये किये जाते हैं । ये सत्कर्म हैं , क्यूँ की ये हमें उसकी ओर हमें प्रवाहित कराते हैं । सत् यह शब्द सत् - पुरुष , सत् - संग , सत् - सद्विचार , आदि शब्दों में भी उपयोग होता है । ये सभी उसका स्मरण दिलाते हैं और उसकी ओर हमें ले जाने में समर्थ हैं । द गंगा , तीर्थ आदि विषयों पर निष्ठा सन्निष्ठा होती है । दया , क्षमा आदि भावनायें सद्भावना हैं ।
'ॐ तत् सत्' यह मन्त्र है । श्री तोतापुरी महाराज ने जब श्री रामकृष्ण परमहंस को निर्विकल्प समाधि की दीक्षा दिए , तब उनके कानों में इसी मन्त्र का उच्चार किया ।
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