ॐ
गीता की कुछ शब्दावली - २५३
यज्ञो दानं तपश्चैव पावनानि मनीषिणाम् (अध्याय १८ - श्लोक ५)
யக்ஞஹ தானம் தபஶ்சைவ பாவனானி மனீஷிணாம் ,, (அத்யாயம் 18 - ஶ்லோகம் 5)
Yagyo Daanam Tapashchaiva Paavanaani Maneeshinaam .. (Chapter 18 - Shlokam 5)
अर्थ : यज्ञ , दान एवं तप मनुष्यों को पावन बनाते हैं ।
अन्यों के हित में किया जाने वाला त्याग यह यज्ञ है । यज्ञ आंग्ल भाषा में "Sacrifice" कहा जाता है । यज्ञ के दो बिन्दु हैं । नि:स्वार्थ भाव एवं लोक हित उद्दिष्य त्याग । यज्ञ का बाहरी स्वरुप है यज्ञ कुण्ड में जगाये गए अग्नि में अन्न , घी आदि आहुति और वस्त्र आदि अन्य द्रव्य चढ़ाना । यज्ञ की हेतु है मन में त्याग भाव का जागरण । त्याग भावना अहंकार , ममता जैसे मल का नाश कर हमें पुनीत बनाता है ।
हमारे लिये उपयोगी वस्तुओं को अन्यों की आवश्यकता पूर्ती के लिये दे देना यह दान है । संग्रह करने की वृत्ति को मिटाकर , हमारे मन में दैवी भावना अपरिग्रह को जन्म देता है दान । इस प्रकार दान यह कर्म हमें पुनीत बनाता है ।
आकर्षणों में बलि न होकर , बाधाओं के सामने हताश ना होकर , यश - अपयश आदि द्वारा बिछाये जा रहे मोह जाल में न फंसकर , हाथ में लिये संकल्प की पूर्ती के लिये अविरत प्रयत्न करना यह तपस है । तप यह विषय भोग के पीछे भागने वाले मन को स्थिर बनाकर , मनो बल या आत्म बल को सुदृढ़ बनाता है और हमें पुनीत बनाता है । इन तीनों कर्मों का त्याग करना उचित नहीं , ऐसा कहना है श्री कृष्ण का ।
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