ॐ
गीता की कुछ शब्दावली - २४८
तद्दानं सात्त्विकम् .. (अध्याय १७ - श्लोक २०)
தத்தானம் ஸாத்விகம் .. (அத்யாயம் 17 - ஶ்லோகம் 20)
Taddaanam Sattvikam .. (Chapter 17 - Shlokam 20)
अर्थ : वह सात्त्विक दान है ।
श्री कृष्ण यहाँ दान के विषय पर बोल रहे हैं । सात्त्विक व्यक्ति का दान कैसे होता है ?
दातव्यं , कर्तव्यं , गन्तव्यम , भवितव्यं , प्राप्तव्यं .. व्यम ये अक्षर लगने से दिया जाना चाहिए , किया जाना उचित है , लक्ष्य जहाँ पहुँचा जाना अवश्य है , ऐसा हो यही योग्य है , प्राप्त किया जाना उचित है , ऐसे अर्थ होते हैं ।
दातव्यं याने , यह दिया जाना चाहिए । यह अवश्य दिया जाना चाहिये । सात्त्विक पुरुष इस एक विचार से दान करता है । दान करने अन्य कोई तर्क या प्रेरणा की उसे आवश्यक नहीं ।
दान के फलस्वरूप प्रशंसा , कृतज्ञता , प्रति उपकार आदि हैं । अनुपकारिणे याने ऐसी व्यक्ति जिसे प्रति उपकार करने की लव लेश भी सम्भावना नहीं । सात्त्विक पुरुष ऐसे अनुपकारिणी व्यक्ति को दान देता है । बुद्धि स्वाधीन जिसे ना हो ऐसी व्यक्ति , अपरिचित , वयोवृद्ध , रोग या अपघात के कारण स्व-प्रज्ञा खोयी हुई व्यक्ति , ऐसे व्यक्तियों को दान देता है । यह है सात्त्विक पुरुष की सहज वृत्ति । कहावत है की दाहिना हाथ देता है तो बाए हाथ को समझना नहीं चाहिये ।
सत्त्व प्रधान पुरुष दान करता है देश , काल और पात्र जानकर । इस स्थान पर , इस काल में और इस व्यक्ति के लिये यह उचित है या नहीं , भला है या नहीं इस विचार से दान करता है सात्त्विकी ।
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