ॐ
गीता की कुछ शब्दावली - २५५
दुःखमित्येव कायक्लेशभयात् त्यजेत् - राजस त्याग .. (अध्याय १८ - श्लोक ८)
து:கமித்ஏவ காயக்லேஶ பயாத் த்யஜேத் - இது ராஜஸ த்யாகம் .. (அத்யாயம் 18 - ஶ்லோகம் 8)
Dukhamityeva kaaya klesha bhayaat Tyajet - This is Rajasa Sacrifice .. (Chapter 18 - Shlokam 8)
अर्थ : यह दुःखमयी है या शरीर को कष्टदायी है , इस विचार से किया जाने वाला कर्म का त्याग राजसी त्याग है ।
प्रधानता से रजो गुण को प्राप्त व्यक्ति स्फूर्ति के साथ कर्मों में लीन होता तो है । परन्तु करने योग्य कर्मों को करेगा ही , यह निश्चित नहीं । और राजसी के मन में , कर्मों से अपेक्षित फलों के प्रति अत्याधिक राग भी है । युक्त कर्म नहीं । करने योग्य कर्म नहीं । परन्तु उससे अपेक्षित फल आकर्षक दिखें तो राजसी उस कर्म को करेगा ही । दूसरी ओर कर्म करने योग्य हो तो भी , यदि उसे करने में शरीर के लिये कष्टदायी प्रतीत होता या उस कर्म से कोई विशेष फल प्राप्ति के आशा ना हो तो राजसी उस कर्म को त्याग देगा । भय वश होकर किया जाने वाला इस त्याग को राजसी त्याग कह रहे हैं श्री कृष्ण ।
यज्ञ में लम्बे समय बैठना या यज्ञ धुँआ के बीच में बैठना कष्टदायी है ऐसा समझकर यज्ञ करता ही नहीं या पुरोहित को यज्ञ शीघ्रादिशीघ्र समाप्त करने की आज्ञा देता है ।
यज्ञ में लम्बे समय बैठना या यज्ञ धुँआ के बीच में बैठना कष्टदायी है ऐसा समझकर यज्ञ करता ही नहीं या पुरोहित को यज्ञ शीघ्रादिशीघ्र समाप्त करने की आज्ञा देता है ।
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