ॐ
गीता की कुछ शब्दावली - २५७
न द्वेष्ट्यकुशलं कर्म कुशले नानुषज्जते .. (अध्याय १८ - श्लोक १०)
ந த்வேஷ்ட்யகுஶலம் கர்ம குஶலே நானுஷஜ்ஜதே .. (அத்யாயம் 18 - ஶ்லோகம் 10)
Na Dweshtyakushalam Karma kushale Naanushajjate ... (Chapter 18 - Shloka 10)
अर्थ : अकुशल कर्म का न द्वेष करता , कुशल कर्म को न चाहता ।
सत्त्व प्रधान व्यक्ति कर्मों के प्रति और कर्मफल के प्रति निरासक्त रहता है । कर्म फल के प्रति निरासक्त रहना यह विषय सुलभता से समझ पाते हैं । कर्मों के प्रति निरासक्ति कैसी ? यह समझने में कठिन है । श्री कृष्ण यहाँ समझाते हैं । सत्त्व प्रधान व्यक्ति अकुशल कर्मों को द्वेष करता नहीं । कर्म अपने स्तर के अनुरूप नहीं ऐसा सोचने से , कर्म के कारण स्वयं को समाज में प्रतिष्ठा , मान - मर्यादा मिल नहीं रहा ऐसा विचार से , कर्म करते हुए 'धर्म - संकट' अनुभव करना या स्वयं के माप दंड के अनुसार उक्त कर्म को अनुचित समझना कारणों से कोई कर्म मन के लिये अप्रिय होता है । सात्त्विक पुरुष इन कारणों से किसी कर्म को द्वेष करता नहीं । उसी प्रकार , कुशल कर्मों को चाहकर , पीछे लगता भी नहीं । ऐसी वृत्ति कैसे सम्भव है ?? कर्तव्य भावना से कर्मों को करना यही उपाय है ।
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