ॐ
गीता की कुछ शब्दावली - २६२
पृथक्त्वेन नानाभावान्पृथग्विधान वेत्ति सर्वेषु भूतेषु तज्ज्ञानं राजसम् ... (अध्याय १८ - श्लोक २१)
ப்ருதக்த்வேன நாநா பாவான்ப்ருதக்விதான் வேத்தி ஸர்வேஷு பூதேஷு தஜ்ஞானம் ராஜஸம் .. (அத்யாயம் 18 - ஶ்லோகம் 21)
Pruthaktvena NaanaaBhaavaan Pruthagvidhaan Vetti Sarveshu Bhooteshu Tajgyaanam Raajasam .. (Chapter 18 - Shlokam 21)
अर्थ : जिस ज्ञान से सभी जीव एक दूसरे से भिन्न और असम्बन्धित दिखते हैं , वह राजस ज्ञान है ।
रजस और सत्त्व में प्रमुख अंतर यह है की रजस जो दिखता उसे ही देखता और सत्त्व जो दिखता उसे तो देखता ही , उसके अलावा जो छुपा है , जो सुप्त है , जो बाह्य दृश्य में दिखता नहीं उसे भी देखता । रजस को यह संसार पृथक पृथक दिखता है तो कोई आश्चर्य नहीं । बाहरी दृश्य में तो यह पृथक पृथक ही दिखता है । विविध वर्ण , विविध रूप , विविध आकार , विविध क्षमतायें सहित यह संसार विविधता पूर्ण ही दिखता है । क्या जो दिखता वही सत्य है ? सृष्टि के इन विविध जीवों में परस्पर कोई सम्बन्ध नहीं ?? क्या ऐसा कोई एकत्त्व है , जो इस विविधता को एक दूसरे से बांधता है ?? ऐसे प्रश्न उठाकर उत्तर ढूंढने से इस विविधता से पार देख सकते हैं । इस प्रयास में धीरज लगता है जो रजस में नहीं । इसी लिये , रजो गुण प्रधान व्यक्ति जो है , जैसा है बस उसे ही , वैसा ही देखता है ।
राजसी विविध भाषाओं को देखता है , सात्त्विकी उन भाषाओं में व्यक्त एक भाव को देखता है ।
राजसी समाज में विविध खान पान देखता है और बांटता है , सात्त्विकी इन विविधता के पीछे एक जीवन दृष्टी को देखता है और बांधता है ।
राजसी शरीर के विभिन्न अंगो के विविध आकार , विविध क्षमता और विविध कार्य कुशलता को देखता है और उन्हें कांट छांट कर अलग अलग उन्हें पढ़ता और अलग अलग ही समझता है । असुविधा या रोग के समय अंगों को अलग अलग उपचार करता । सात्त्विकी इन विविध अंगो को एक सूत्र में बांधने वाला प्राण शक्ति को देखता है और उसे पोषक बनाता ।
राजसी संसार को विविधता पूर्ण सृष्टि के रूप में देखता है । सात्त्विकी इस विविधता को एक सूत्र में बांधने वाला सृष्टिकर्ता को देखता है ।
राजसी विविध भाषाओं को देखता है , सात्त्विकी उन भाषाओं में व्यक्त एक भाव को देखता है ।
राजसी समाज में विविध खान पान देखता है और बांटता है , सात्त्विकी इन विविधता के पीछे एक जीवन दृष्टी को देखता है और बांधता है ।
राजसी शरीर के विभिन्न अंगो के विविध आकार , विविध क्षमता और विविध कार्य कुशलता को देखता है और उन्हें कांट छांट कर अलग अलग उन्हें पढ़ता और अलग अलग ही समझता है । असुविधा या रोग के समय अंगों को अलग अलग उपचार करता । सात्त्विकी इन विविध अंगो को एक सूत्र में बांधने वाला प्राण शक्ति को देखता है और उसे पोषक बनाता ।
राजसी संसार को विविधता पूर्ण सृष्टि के रूप में देखता है । सात्त्विकी इस विविधता को एक सूत्र में बांधने वाला सृष्टिकर्ता को देखता है ।
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